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Mira Road, Mumbai, India
Manish Pathak M. Sc. in Mathematics and Computing (IIT GUWAHATI) B. Sc. in Math Hons. Langat Singh College /B. R. A. Bihar University Muzaffarpur in Bihar The companies/Organisations in which I was worked earlier are listed below: 1. FIITJEE LTD, Mumbai 2. INNODATA, Noida 3. S CHAND TECHNOLOGY(SCTPL), Noida 4. MIND SHAPERS TECHNOLOGY (CLASSTEACHAR LEARNING SYSTEM), New Delhi 5. EXL SERVICES, Noida 6. MANAGEMENT DEVELOPMENT INSTITUTE, GURUGRAM 7. iLex Media Solutions, Noida 8. iEnergizer, Noida I am residing in Mira Road near Mumbai. Contact numbers To call or ask any doubts in Maths through whatsapp at 9967858681 email: pathakjee@gmail.com

Thursday, January 27, 2011

यात्रा-संस्मरण/ इजिप्त की सैर- पिरामिडों के देश में-पंडित सुरेश नीरव

विश्वप्रसिद्ध पिरामिडों,ममियों और विश्व सुंदरी नेफरीतीती और क्लियोपेट्रा के देश इजिप्त के लिए 11जनवरी2011 को गल्फ एअर लाइंस की फ्लाइट से हम लोग बेहरीन के लिए दिल्ली से सुबह 5.30 बजे की फ्लाइट से रवाना हुए। इजिप्त की राजधानी केरों पहुंचने के लिए बेहरीन से दूसरी फ्लाइट लेनी होती है। जोकि पूरे चार घंटे बाद मिलती है। यहां का समय भारत के समय से पूरे तीन घंटे पीछे चलता है। बेहरीन के हवाई अड्डे पर उतरे तो वहां भारतीय चेहरों की बहुतायत देखने को मिली। यूं तो फ्लाइट में ही हमारे साथ जो लोग सफर कर रहे थे उससे हमें कुछ-कुछ अंदाजा लग गया था कि बेहरीन के निर्माण में मजदूर और इंजीनियर भारत के ही हैं। और फिर वहां जब ड्यूटी फ्री शॉप्स में जाकर खरीदारी की तो वहां के सेल्समैन ये जानकर कि हम भारत से आए हैं हम से हिंदी में ही बात करने लगे। एअरपोर्ट पर उड़ानों की सूचना अरबी,इंगलिश और हिंदी भाषा में दी जा रही थी इससे सिद्ध हो गया कि शेखों के पास भले ही पेट्रोल के कुएं हों मगर बेहरीन की ज़िंदगी के धागों का संचालन हिंदुस्तानियों के ही हाथ में है। और हिंदुस्तान के दफ्तरों में भले ही हिंदी को हिंदुस्तानी अधिकारी दोयम दर्जे का मानकर अपनी टिप्पणी अंग्रेजी में देते हों मगर बेहरीन में हिंदी की ठसक पूरी है। बेहरीन में वनस्पति बहुत कम है। हरियाली के मामले में बेहरीन का दिल्ली से कोई मुकाबला नहीं। यहां के बाशिंदे भारतीयों-जैसे ही नाक-नक्श और कद-काठी के ही हैं। जब तक बोलते नहीं पता नहीं चलता कि कि ये भारतीय हैं या बेहरीनी। दो घंटे बेहरीन में गुजारकर हम लोग दूसरी उड़ान से इजिप्त की राजधानी केरो के लिए रवाना हुए। और तीन घंटे की उड़ान के बाद केरो एअरपोर्ट पर उतरे। यहां का मौसम खुशगवार था और तापक्रम 13 डिग्री सेल्सियस था। दिल्ली की ठिठुरती सर्दी से घबड़ाए लोग जितनें ऊनी कपड़े लेकर आए थे वे कुछ जरूरत से ज्यादा साबित हुए। एअरपोर्ट से 11 किमी दूर गीजा शहर की होटल होराइजन में हमें ठहराया गया। यह इजिप्त की बेहतरीन होटलों में एक है। रास्तेभर उड़ती धूल और सड़कों पर फैली पोलीथिन थैलियों और बीड़ी-सिगरेट के ठोंठों को देखकर यकीन हो गया कि मिश्र की सभ्यता पर भारतीय सभ्यता की बड़ी गहरी छाप है। और नील नदी तथा गंगा नदी के बीच पोलीथिन का कूड़ा एक सांस्कृतिक सेतु है। नेहरू और नासिर की निकटता शायद इन्हीं समानताओं के कारण उपजी होगी। और निर्गुट देशों के संगठन का विचार इसी रमणीक माहौल को देखकर ही इन महापुरुषों के दिलों में अंकुरित हुआ होगा।
दिल्ली के सरकारी क्वाटरों के उखड़े प्लास्टर और काई खाई पुताई से सबक लेकर इजिप्तवासियों ने मकान पर प्लास्टर न कराने का समझदारीपूर्ण संकल्प ले लिया है। यहां मकान के बाहर सिर्फ ईंटें होती हैं।प्लास्टर नहीं होता। पुताई नहीं होती। दिल्ली की तरह मेट्रो यहां भी चलती है।लाइट और सड़कों के मामले में इजिप्त दिल्ली से आगे है। पिरामिड और ममियोंवाले इस देश की राजधानी केरों में एक अदद ग्रेवसिटी भी है। यानी कि कब्रों का शहर। जहां सिर्फ मुर्दे आराम फरमाते हैं। इनकी कब्रें मकान की शक्ल में हैं। जिसमें खिड़की और दरवाजे तक हैं। छत पर पानी की टंकी भी रखी हुईं हैं। और इन कब्रीले मकानों पर प्लास्टर ही नहीं पुताई भी की हुई है। मुर्दों के रखरखाव का ऐसा जलवा किसी दूसरे देश को नसीब नहीं। कब्रों की ऐसी शान-शौकत देखकर हर शरीफ आदमी का मरने को मन ललचा जाता होगा। ऐसा मेरा मानना है। यहां का म्यूजियम भी ममीप्रधान संग्राहलय है। हजारों साल से सुरक्षित रखी ममियां दर्शकों को हतप्रभ करती हैं। मन में प्रश्न उछलता है, इन निर्जीव शरीरों को देखकर कि अपना सामान छोड़ कर कहां चले गए हैं ये लोग। क्या ये वापस आंएंगे अपना सामान लेनें। हमारे यहां के सरकारी खजाने में किसी की अगर एक लुटिया भी जमा हो जाए तो उसे छुड़ाने में उसकी लुटिया ही डूब जाए। मगर इस मामले में इजिप्त के लोग बेहद शरीफ हैं। वो बिना शिनाख्त किए ही तड़ से किसी भी रूह को उसका सामान वापस लौटा देंगे। शायद इसी डर के कारण इनके मालिक अभी तक आए भी नहीं हैं। आंएंगे भी नहीं। मगर इंतजार भी एक इम्तहान होता है। और बार-बार इस इम्तहान में फेल होने के बाद भी इस मुल्क के लोग फिर-फिर इस इम्तहान में बैठ जाते हैं। और फिर हारकर खुद उनके मालिकों के पास पहुंच जाते हैं तकाज़ा करने। कि भैया अपना माल तो उठा लाओ। सब आस्था का सवाल है। गीजा में कुछ पिरामिड हैं मगर असली पिरामिड जो दुनिया के सात आश्चर्यों में शुमार हैं वे गीजा से 19 कि.मी. दूर सकारा में बने हैं। इन पिरामिडों की तलहटी में भी शाही ताबूतों में जन्नत नशीन बादशाहों के जिस्म आराम फरमा रहे हैं। इजिप्त के सर्वाधिक चर्चित 19 वर्षीय सम्राट तूतन खातून भी शुमार हैं। तमाम खोजों के बाद पता चला कि इतना बहादुर सम्राट सिर्फ 19 साल में मलेरिया के कारण जिंदगी से हार गया। एक साला मच्छर कब से आदमी के पीछे पड़ा है। उसे ममी बनाने के लिए। ममीकरण की केमिस्ट्री भी बड़ी अजीब है। हमारे गाइड ने हमें बताया कि ममीकरण के लिए पहले मृतक शरीर को बायीं तरफ से काटकर उसके गुर्दे,जिगर और दिल को निकालकर बाहर फेंक दिया जाता है।। फिर नाक में कील घुसेड़कर खोपड़ी की हड्डी में छेद कर के दिमाग को भी खरोंचकर बाहर फेंक दिया जाता है। फिर पूरे शरीर में सुइयां घुसेड़ कर शरीर का सारा खून भी निकाल दिया जाता है। इस प्रकार सड़नेवाली सारी चीजों को शरीर से निकाल दिया जाता है। इसके बाद मृतक शरीर को नमक के घोल में 40 दिन के लिए रख दिया जाता है। चालीस दिन बाद इस शरीर को नमक के घोल से बाहर निकालकर 30 दिन के लिए धूप में रखा जाता है। तीस दिन बाद फिर इस शरीर पर लहसुन,प्याज के रस और मसालों का लेप कर के तेज इत्र से भिगो दिया जाता है ताकि सारी दुर्गंध दूर हो जाए। ममियों के बाद बात करते हैं-पिरामिडों की। पिरामिडों में सबसे पहला पिरामिड सम्राट जोसर ने बनवाया। जिसे बनाने में पूरे बीस साल लगे। इजिप्त का हर किसान साल के पांच महीने इसके बनाने में लगाता था। सम्राट जोसर की कल्पना को अंजाम दिया उनके इंजीनियर मुस्तबा ने। इस पिरामिड में छह पट्टियां हैं। कहते हैं कि खोजकर्ताओं को इसकी तलहटी में 14000 खाली जार मिले थे। जो पड़ोस के किसी राजा ने फैरो को बतौर तोहफे भेंट किए थे। इससे लगा ही एक दूसरा पिरामिड है जो सम्राट जोसर के बेटे ने बनवाया था। पिता की इज्त के कारण उसने इस पिरामिड का आकार पिताजी के पिरामिड से जानबूझकर छोटा रखा था। इसके साथ ही एक और सबसे छोटा पिरामिड बना हुआ है। यहीं कुछ दूरी पर बना है-टूंब ऑफ लवर..यानीकि प्रेमी का मकबरा। जोकि साढ़े बासठ मीटर ऊंचा और अठ्ठाइस मीटर गहरा है। फैरो यहां के सम्राट की पदवी हुआ करती थी। इन्हीं मे एक फैरो था-एकीनातो। विश्वसुंदरी नेफरीतीती इसी फैरो की पत्नी थी। नेफरीतीती का इजिप्तियन में भाषा में मतलब होता है-सुंदर स्त्री आ रही है। सुराहीदार लंबी गर्दनवाली नेफरीतीती इजिप्त की पहचान और शान है। तमाम ऐतकिहासिक धरोहरों को संजोए केरो में दिल्ली की तरह मेट्रो भी चलती है। गीजा से एलेक्जेंड्रीया जाते हुए बीच में एक इंडियन लेडी पैलेस भी बना है। कौन थी वह भारतीय महिला इसका पता किसी को नहीं है। पर महल पूरी आन-बान शान के साथ आज भी मौजूद है।
ईसा से 300 साल पहले इजिप्त में ग्रीक आए। अलेक्जेंडर ने आकर फैरों की सल्तनत खत्म कर दी। और बसाया एलेक्जेंड्रिया। एक नया राज्य। लुक्सर को बनाया अपनी राजधानी। गीजा से एलेक्जेंड्रिया 290 किमी दूर है। बस से यहां तक आने में हमें पूरे चार घंटे लगे। रास्तेभर केले,अंगूर,आम,खजूर,आलू,बेंगन और ब्रोकली के खेत मन को लुभाते रहे। भूमध्यसागर की बांहों में तैरता एलेक्जेंड्रिया ग्रीक शिल्प से बना खूबसूरत शहर है। समुद्रतल इतना ऊंचा है लगता है अभी अभी किनारों को तोड़करप समुद्र सारे शहर को अपनी जद में ले लेगा। सन 1414 मे एलेक्जेंडर ने यहां अपना किला बनवाया था। और समुद्र किनारे ही बनाए थे अपने लाइट हाउस। इस शहर की खासियत यह है कि यहां जब चाहे बारिश हो जाती है। इसलिए यहां की सड़कें हमेशा पानी में में डूबी रहती हैं। गीली तो हमेशा ही रहती हैं। यह शहर मछली के आकृति का है। इसलिए इसे राबूदा भी कहा जाता रहा है। राबूदा का अर्थ है-मछलीनुमा स्थान। इस शहर के भीतर होरीजेंटल और वर्टिकल गलियां हैं। जो शहर के जिस्म में नाड़ियों की तरह फैली हुई हैं। इस शहर में बना है एक मकबरा-कैटैकौब मकबरा। इस टूंब में 92 सीढ़ियां हैं। दिलचस्प बात ये कि इस मकबरे की खोज सन 1900 में एक बंदर ने की थी। होता क्या था कि वहां जो भी बंदर जाकर उछलता उसकी टांग जमीन में फंस जाती। लोगों को ताज्जुब हुआ। वहां खुदाई की गई और उसका नतीजा रहा ये मकबरा। इतना विशाल मकबरा जमीन के दामन में छिपा मिला। इस मकबरे में भी सौंकड़ों जारों का जखीरा मिला था। कहा जाता है कि ग्रीक लोग जार में ही खाना खाते थे और एक बार जिस जार में वो खाना खा लेते थे उसे दुबारा उपयोग में नहीं लाते थे। इसलिए इतने जार यहां इकट्ठा हो गए। ग्रीक लोग इस मकबरे में रहते भी थे। इन ग्रीक लोगों ने इस भूमिगत मकबरे की दीवारों में सुरंगें बना रखी थीं, जिसमें कि वे शव दफनाया करते थे। इस तरह यह एक किस्म का सामुदायिक मकबरा है। एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि ग्रीक और रोमन में कभी युद्ध नहीं हुए क्योंकि ग्रीकों ने इजिप्शियन भगवानों का कभी अपमान नहीं किया। उस वक्त इजिप्त में 300 भगवान थे। रोमनों ने जब यहां कब्जा किया तो उन्होंने इन भगवानों को अस्वीकृत कर दिया और क्रिश्चियन धर्म का प्रचार करने लगे। इस कारण लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप यहां इस्लाम धर्म अस्तित्त्व में आ गया। जो अभी तक है। वैसे रोमन राज्य की निशानी के बतौर यहां आज भी विशाल रोमन थिएटर मौजूद है। इस प्रेक्षाग्रह में एक साथ पांच हजार दर्शक बैठ सकते थे। और खासियत यह कि ईको सिस्सटम ऐसा कि बिना माइक के सारे लोग भाषण सुन सकें। आगे चलकर एक और स्मारक है-मौंबनी स्तंभ। अब वक्त बदलता है। जिसकी ताकीद करती है-मुहम्मद फरीद की प्रतिमा। इस बहादुर आदमी ने तुर्क और रोमनों से इजिप्त को आजाद कराया था। थोड़ा और आगे चलकर है- सम्राट इब्राहिम की मूर्ति। जो इजिप्तवासियों के शौर्य का प्रतीक हैं। दिल्ली के इंडिया गेट की ही तरह यहां भी इजराय़ल-इजिप्त युद्ध के दौरान शहीद सैनिकों की स्मृति में एक स्मारक बना हुआ है। नालंदा और तक्षशिला की टक्कर पर यहां भी है -एलक्जैंड्रिया लाइब्रेरी। जहां रखीं हैं लाखों दुर्लभ पुस्तकें। आगे है रेड सी। इस लाल सागर और भूमध्यसागर को जोड़ने का बीड़ा उठाया था-फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट नें। जो बाद में स्वेज नहर के रूप में आज भी हमारे सामने है। एलेक्जेंड्रिया में ट्रामें भी चलती हैं। एक उल्लेखनीय बात और…पूरे इजिप्ट में ट्रैफिक भारत से उलट दांयीं और चलता है।
हमारी संस्कृति में भोजपत्र बहुत महत्वपूर्ण है। इजिप्ट में वैसे ही महत्वपूर्ण है- पपाइरस। इसमें सुंदर कलात्मक कृतियां उकेरकर यहां पर्यटकों को रिझाया जाता है। पपाइरस केले के तने-जैसा रेशेदार-गूदेदार स्तंभ होता है। जिसमेंकि पिरामनिड की आकृति कुदरतन बनी होती है। इसलिए इजिप्शयन इसे भोजपत्र की तरह पवित्र मानते हैं। ये इसके रेशों को पीट-पीटकर कमरे की दीवार तक बड़ा कर लेते हैं और उस पर कलाकृतियां बनाते हैं। कुछ कलाकृतियां मैं भी खरीद कर लाया हूं। तन्नूरा और वेली नृत्य पर थिरकता इजिप्ट सूती कपड़ों और मलमल के लिए मशहूर है। खलीली स्ट्रीट और मुबेको मॉल यहां खरीदारी के मशहूर ठिकानें हैं। भारत की हिंदी फिल्में यहां खूब लगाव से देखी जाती हैं। इसलिए यहां के व्यापारी भारतीयों को देखकर..इंडिया…इंडिया.. अमिताभ बच्चन…शाहरुख खान और करिश्माकपूर के जुमले उछालने लगते हैं। इजिप्त में भारत के राजदूत के. स्वामीनाथन ने हमें अपनी मुलाकात में बताया कि यहां 4000 हिंदुस्तानी वैद्य रूप से रह रहे हैं। और भारत का यहां की अर्थव्यवस्था में 2.5 मिलियन डॉलर का निवेश है। पेट्रोकेमिकल,,डाबर, एशिया पेंट्स, और आदित्य बिड़ला ग्रुप ने यहां के बाजार पर अपने दस्तखत कर दिये हैं। भारतीय भोजनों से लैस यहां तमाम शाकाहारी होटलें भी हैं। शाकाहारी खाने को यहां जैन-मील्स कहा जाता है। इजिप्ट मे बिना प्याज-लहसुन के भी शाकाहारी भोजन मिल सकता है यह विचित्र किंतु सत्य किस्म की एक सुखद हकीकत है। इन सारे अदभुत अनुभवों को दिल में समेटे जब भी कोई भारतीय इजिप्ट से भारत लौटता है तो उसकी यादों की किताब में एक पन्ने का इजाफा और हो जाता है जिस पर लिखा होता है-इजिप्ट। पिरामिडों की तरह स्थाई यादों का प्रतीक- इजिप्ट।

Tuesday, January 25, 2011

Sushma Swaraj BJP (Tiranga Yatra)

  1. Vande Matram.
  2. After Mahabharat, there is no Sanjay who can give an eyewitness account without being on the scene.
  3. Pl be assured that this is my genuine a/c. If some see a ghost, then it is me - Sushma Swaraj.
  4. I adopt this methodology while touring also.The msgs are dictated on phone - typed and read back to me.After my clearance, they r sent to u
  5. I will tell you the modality that I adopt. I dictate my tweets on my a/c. Each word typed is read out to me and then sent.
  6. Let me tell you that all tweets are mine.
  7. Some doubts have been raised about my tweets - if they were genuine or fake. Some even said that they were ghost written.
  8. Government will have to answer - Is hoisting the national flag an offence in our country ?
  9. While hoisting the National flag, they were arrested and brutally beaten up in custody.
  10. We are back in Delhi. Some 25 karyakartas of our Party and Yuva Morcha were able to reach Srinagar.
  11. Vande Maatram my brothers and sisters.
  12. Leaving for Jammu.
  13. We will return to Delhi from Jammu this evening.
  14. Hope you are all flying the tricolour on your house.
  15. Republic day greetings to all.
  16. Aap sab ko gantantra diwas ki badhai.
  17. Is it not unfortunate that both Leaders of Opposition were in jail on the Republic day ?
  18. We will hold a Press conference in Jammu.
  19. We will then proceed to Jammu.
  20. We are going to Mukherjee Chowk in Kathua to unfurl the national flag.
  21. We have been released.
  22. Vande Maatram
  23. We have been stopped.
  24. The road is blocked.
  25. Crossed the bridge.
  26. About to reach the other side.
  27. Its a no signal area.
  28. Huge police presence on the other side of the bridge.
  29. We are moving in groups of 500 people each. We are holding tricolor. Bharat mata ki Jai - Vande maatram. We are Arun, Anantha,Shanta& Anurag
  30. It is a long bridge. We are just 200 metres from J&K side of the bridge.
  31. Arun, Shanta Kumar Anurag Thakur are with me.
  32. We are marching in a group of 500 people holding tricolour.
  33. We have reached half way thru the bridge.
  34. We have started march towards J&K.
  35. Live Webcast of rally at http://live.bjp.org 11 AM onwards. Dr S P Mukherjee was arrested on the bank of river Raavi here in 1953. Pl RT
  36. Madhopur rally will be webcast live. The link will be given shortly.
  37. My brothers and sisters - Please do fly national flag on your house tomorrow. Vande Maatram - Vande Maatram.
  38. Now we are addressing youth rallies together as Leaders of Opposition in Lok Sabha and Rajya Sabha. I owe everything to RSS/ABVP sanskars.
  39. I knew Arun Jaitley when he contested for Delhi Univ Students Union and I addressed meetings in his support - 36 years back.
  40. I passed my law and started my practice before Supreme Court of India in 1973.
  41. Not heard of Subhash Mahajan for a long time. Kalidass Batish is a prominent lawyer in Simla. He was a great mimic.
  42. I vividly remember Subhash Mahajan, then a Law student from Jammu and Kalidass Batish from Simla filled up my ABVP form.
  43. I am reminded of my ABVP days. I joined ABVP 40 years back as a law student.
  44. Yuva Morcha is holding a rally at 11 am. Anurag Thakur is here. We will be addressing the Yuva Morcha rally.
  45. Yesterday, when we were arrested in Jammu we did not know where we were going. We were in separate cars.
  46. We are at Madhopur. It is a small town on Punjab - J&K border.
  47. Vande Maatram. It is Rajmata Sahiba's punyatithi. Pranam Rajmata.
  48. Vande Maatram.
  49. We did not come for a Satyagraha. We have come for Tiranga Yatra. Wont give up. Come what may.
  50. We will enter J&K again.
  51. This place is called Madhopur.
  52. Just dumped on j&J - Panjab border.
  53. Arrested - cars - separate - dont know where to ?
  54. 'You are under arrest' they say.
  55. They have got our baggage. Its loaded in three cars. What next ? Dont know.
  56. You don't arrest us - you don't allow us to leave the Airport. This is not the law that I read.
  57. Arun and I are both lawyers. I practised before Supreme Court right from 1973 onwards
  58. DGP and other senior officials have arrived.
  59. Arun Jaitley and Anant Kr with me.
  60. We have been taken to the Terminal. Those accompanying us held at the tarmac. DM came.
  61. Just see - we are being deported because we want to fly the national flag.
  62. Arun Jaitley & Anant trying to reason with the. You cant do this under Section 144 ?
  63. The plane is not allowed to leave.
  64. Terminal gates are locked. We are not allowed there.
  65. @rams_j Pictures are not allowed.
  66. Bharat Mata ki jai. Vande Maatram - Vande Maatram. Bs hamein jaane do.
  67. Lo suno - Hum jhanda fahrayeinge. Aur Bharat ka jhanda fahrayeinge. Bs hamein physically pahunchne do.
  68. Kahte hain 'dekhte hain kaun jhanda fahrata hai aur kiska jhanda fahrata hai'. Arre hamari mayon ne kaayar jane hain kya ?
  69. I am reminded of what poet Faiz wrote 'Nisar main teri galiyon pe ae watan ki jahan chali hai rasam ki koi na sar utha ke chale'.
  70. What is our offence ? We only want to hoist our national flag.
  71. What is this ? They are not allowing the plane to leave without us.
  72. We are determined to go and hoist the national flag at the Lal Chowk. The Government should allow us to go there at our risk.
  73. We are at the tarmac.
  74. They have the power to arrest us. How can they deport us.
  75. They are not allowing the plane to fly back. They are asking us to go back in the Plane. We have refused.
  76. Initially they were not allowing us to deplane. Now we have come out. We are sitting at the tarmac.
  77. They have served us an Order under S.144 CrPC. They want us to fly back.
  78. We have landed in Jammu. It appears they have locked the Terminal gates. Not being allowed to go out.

Monday, January 24, 2011

विकास का संदर्भ और स्वरूप-- के. एन. गोविन्दाचार्य

भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है।
जब हम विकास की बात करते हैं तो प्राय: हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है।
भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्रीकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य विकसित हुई। यहां समृध्दि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुईं। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी। समय-समय पर परिमार्जन की व्यवस्था भी बनती गई। देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्रीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया। विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है।
विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है। विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आक्रामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्रीकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूषित संकल्पना है।
भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदनुसार शिक्षा संस्कार भी हो। समाज में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम समाज कैसा चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है। इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुत: विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते? एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है।
भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृध्द नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है। अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते।
भारत के विकास की दिशा में सोचने पर मेरे ध्यान में आता है कि यहां ऐसी नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे परिवार की इकाई मजबूत बने। दरअसल, भारत की संरचना ही ऐसी है कि हम यहां एक-दूसरे के साथ एक खास तरह की डोर में बंधे बगैर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हमारे सामाजिक संबंधों को तय करने में भी हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। हम सब अपने-अपने परिवार से ही संस्कार ग्रहण्ा करते हैं। जब परिवार नामक इकाई मजबूत रहेगी तभी सही मायने में उसके सदस्यों के व्यक्तित्व का समग्र विकास हो पाएगा। आजकल देखने में आ रहा है कि परिवार नामक इकाई कमजोर होती जा रही है। अलगाव बढ़ता जा रहा है। लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। इसका असर समाज में साफ तौर पर दिखने लगा है। भय और असुरक्षा का माहौल बढ़ता जा रहा है। सोचने का दायरा सिमट कर रह गया है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने की मानसिकता में आज लोग आ गए हैं। अगर हम वाकई इस दिशा में सुधार करना चाहते हैं तो हमारी नीतियां ऐसी हों जो परिवार नामक इकाई को मजबूत कर सकें।
देश के विकास के बारे में जब हम सोचें तो यह बात भी जेहन में रहनी चाहिए कि इसके लिए नारी की सुरक्षा, मर्यादा और सहभागिता सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है। भारत में नारी को मातृशक्ति का दर्जा दिया गया है। पर हकीकत में यह धारणा बस किताबों में ही रह गई है। व्यावहारिक तौर पर समाज में महिलाओं को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है, जिसकी हकदार वो हैं। हमें राष्ट्र के विकास की नीतियों के निर्धारण के वक्त इस बात का खयाल रखना होगा। आजादी के साठ साल गुजरने के बावजूद हम देख सकते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। ऊंचे ओहदों की बात करें तो वहां तो महिलाएं और भी कम दिखती हैं। अगर हम समग्र विकास चाहते हैं तो आधी आबादी की सहभागिता को बढ़ाए बगैर ऐसा नहीं हो सकता।
देश के विकास के दौरान समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहना बेहद जरूरी है। आजकल देखा जा रहा है कि समृध्दि के लिए संस्कृति की उपेक्षा की जा रही है। समृध्दि भी जनसाधारण की नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों की। देश की नीतियां पूंजीपरस्त हो गई हैं और उसमें थैलीशाहों का हित सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है। यदि हम समाज का समग्र विकास चाहते हैं तो समृध्दि और संस्कृति में संतुलन साधना बेहद जरूरी है। यह संतुलन साधे बगैर समाज में विकास की बात करना बेमानी होगा।
दरअसल, आज इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हम आखिर समृध्दि किस कीमत पर चाहते हैं। क्या अपनी परंपराओं को मिटाकर लाई जा रही तथाकथित समृध्दि की हमें जरूरत है? और अगर हमारा जवाब नकारात्मक है तो आखिर हमारे लिए विकास का रास्ता क्या हो? आखिर कैसे हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समृध्दि की दिशा में बढ़ें? कैसे हम अपनी संस्कृति को ही समृध्दि के लिए उपयोग में ला सकें? ये कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर बातचीत करने की आज जरूरत है।
स्वस्थ विकास तो मनुष्य के साथ-साथ जमीन, जल, जंगल और जानवर के विकास से भी जुड़ा है। इनकी उपेक्षा करके विकास की परिभाषा गढ़ेंगे तो वह टिकाऊ नहीं होगा। पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्र को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्र को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा।
यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती। ऐसे लोग भी अपने देश में है जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें। अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा के बजाए समृध्दि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समयबध्द कार्यक्रम लागू किए जाएं।
भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनैतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनैतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरूआत होनी चाहिए।
देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है। न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।
समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रें को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत के सामाजिक विकास में यहां के धर्मस्थलों की अहम भूमिका रही है। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।
शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एवं जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो।
देशी चिकित्सा पध्दतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवनशैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पध्दतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृध्दि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानक’ तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को मिल पाएगा।

आखिर वसिष्ठ कौन थे?----सूर्यकांत बाली

किसी भी भारतवासी के सामने आप वसिष्ठ का नाम ले लें तो एकदम बोल उठेगा, वही जो, दशरथ के कुलगुरू, जिन्होंने उनके चार बेटों, राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न को शिक्षा-दीक्षा प्रदान की थी। वही तो, जिन्होंने तब दशरथ को समझाकर ढांढस बंधाया था कि अगर मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को राक्षसों का वध करने अपने आश्रम ले जाना चाहते हैं, तो कोमल हृदय पिता होने के बावजूद दशरथ को घबराना नहीं चाहिए और अपने दोनों बेटों को उनके साथ भेज देना चाहिए।
वही तो, जिन्होंने तब कौशल देश का शासन बड़ी मुस्तैदी से चलाया, जब दशरथ का देहांत हो चुका था, राम ने वन से वापस लौटने के लिए मना कर दिया था और भरत ने बाकायदा राजतिलक करवा कर राजसिंहासन पर बैठने की बजाय राम की चरणपादुका को वहां बिठा खुद नन्दिग्राम से राजकाज चलाने की औपचारिकता भर पूरी की थी। जी हां, वही वसिष्ठ।
जो कुछ ज्यादा जानकार होंगे, वे यह बताना भी नहीं भूलेंगे कि वसिष्ठ और विश्वामित्र में जमकर संघर्ष हुआ था, जिसके रंग-बिरंगे विवरण पुराण ग्रंथों में मिल जाते हैं। कहेंगे कि वसिष्ठ के पास एक कामधेनु गाय थी जो हर इच्छा पूरी कर सकती थी, जिसकी एक वत्सा थी, नन्दिनी। कामधेनु तथा उसका बछड़ा-गाय नन्दिनी की अद्भुत विशेषताओं से विश्वामित्र इतने प्रभावित और आकर्षित हुए कि उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि मुझे इनमें से एक गाय दे दो।
वसिष्ठ ने मना कर दिया तो दोनों में जमकर युद्ध हुआ जिसमें वसिष्ठ के सौ बेटे मारे गए, पर विश्वामित्र के मन की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। जी हां, वही वसिष्ठ। जिन्हें वसिष्ठ के बारे में कुछ और भी ज्यादा मालूम होगा तो वे वसिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष को विभिन्न वर्णों और जातियों के संघर्ष के रूप में पेश करने को उतावले होंगे और कहेंगे कि पुराने जमाने में जब मनुष्य की जाति का निर्धारण जन्म से नहीं कर्म से होता था, तब भी ब्राह्मण कुल में पैदा हुए वसिष्ठ ने क्षत्रिय कुल में पैदा हुए विश्वामित्र को विद्वान, ज्ञानी, मन्त्रकार होने के बावजूद ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया। खुद को उन्होंने ब्रह्मर्षि कहलाया तो विश्वामित्र को उन्होंने हद से हद राजर्षि ही माना।
जी हां, ये वही वसिष्ठ हैं, जिनके बारे में हमारी स्मृति में इतना कुछ लिखा-बिछा पड़ा है। और अगर इतना कुछ हम भारतवासियों को वसिष्ठ के बारे में याद है, पता है, तो जाहिर है कि हमारे देश के इतिहास में उनकी एक महत्वपूर्ण जगह रही है। पर जिस तरह की चीजें हमें वसिष्ठ के बारे में पता हैं, क्या उतने भर से वे इस देश की इतिहास यात्रा के मीलपत्थर साबित हो जाते हैं? यानी क्या इन यादों के विवरण में से उनका कोई ऐसी योगदान झलकता है, जिसने हमारे देश के विचार को, यहां के समाज की सोच को, सभ्यता को आगे बढ़ाया हो?
वसिष्ठ ने दशरथ से कहा कि राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो, उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना पर ब्रह्मर्षि नहीं, सिर्फ राजर्षि माना, तो इस तमाम कथामाला में ऐसा क्या है कि वसिष्ठ को भारत राष्ट्र का विराट या विशिष्ट पुरूष माना जाए? है और चूंकि यकीनन है, इसलिए हमें वसिष्ठ के बारे में थोड़ा गहरे जाकर और ज्यादा सच्चाइयां टटोलनी होंगी। वसिष्ठ की कुछ ऐसी खास और बार-बार उल्लेख के लायक कोई विशेष देन थी कि हमारे जन के बीच क्रमश: उनकी प्रतिष्ठा मनुष्य से बढ़कर देव पुरूष के रूप में होने लगी।
माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता। उसे तो लोकोत्तर होना चाहिए। इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। अपने महान नायकों को दैवी महत्व देने का यह भारत का अपना तरीका है, जिसे आप चाहें तो पसंद करें, चाहें तो न करें, पर तरीका है। यही वह तरीका है जिसके तहत तुलसीदास को वाल्मीकि का तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिया जाता है। ऐसे ही मान लिया गया कि वसिष्ठ जैसा महाप्रतिभाशाली व्यक्ति ब्रह्मा के अलावा किसका पुत्र हो सकता है? पर चूंकि ब्रह्मा का परिवार नहीं है, इसलिए मानस पुत्र होने की कल्पना कर ली गई। खैर।
ठीक इसी मुकाम पर आकर हमें यह मान लेना चाहिए कि वसिष्ठ के बारे में जितनी तरह की खट्टी-मीठी कथाएं और रंग-बिरंगे विवरण हमें याद हैं, वे सभी एक वसिष्ठ के नहीं, अलग-अलग वसिष्ठों के हैं, यानी वसिष्ठ वंश में पैदा हुए अलग-अलग मुनि-वसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है और आजकल भी जैसे कोई जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है, वैसी ही परम्परा काफी पुराने काल से चलती आ रही है।
वे वसिष्ठ थे जिन्होंने दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। जिन वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। जिन वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया, उनका नाम देवराज वसिष्ठ था। ये सब वसिष्ठ अलग-अलग पीढ़ियों के हैं।
तो वसिष्ठ पर पाठकों के साथ अपना संक्षिप्त संवाद खत्म करने की शुरूआत इस सवाल से की जाए कि वसिष्ठ नाम आखिर कैसे पड़ा? वसिष्ठ में वस शब्द है जिसका अर्थ है रहना और निवास, प्रवास, वासी आदि शब्दों में वास का अर्थ इसी आधार पर निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ है सबसे ज्यादा यानी सर्वाधिक बड़ा तो वसिष्ठ यानी सर्वाधिक पुराना निवासी।
जो वसिष्ठ, जो आद्य वसिष्ठ, जो सबसे पुराने वसिष्ठ कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे वे स्मृति परम्परा के मुताबिक हिमालय से वहां आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूंकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी तो कभी ऋग्वेद के मुताबिक ‘वरूण-उर्वशी’ की सन्तान मानने की रोचक कथाएं मिल जाती हैं।
सवाल है कि वसिष्ठ हिमालय से नीचे क्यों उतरे होंगे? क्यों अयोध्या में आकर रहने लगे? इन छोटे से सामान्य सवालों में ही वसिष्ठ का वह अमूल्य योगदान छिपा पड़ा है जिसने इस देश की विचारधारा को एक नया मोड़ दे दिया। हम जान चुके हैं कि सामाजिक अव्यवस्था से निजात पाने के लिए ही जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था दी।
देश के इतिहास में यह एक नया प्रयोग था जहां पूरे समाज ने अपनी सारी शक्तियां, अपना पूरा वर्तमान और अपने तमाम सपने एक राजा के हाथ में सौंप दिए थे, जिसके बाद राजा का अतिशक्तिशाली बन जाना स्वाभाविक था। यह एक नई बात थी, जहां एक व्यक्ति पूरे समाज के वर्तमान और भाग्य का विधाता बन गया। आद्य वसिष्ठ को, जो हिमालय में ही रहते थे और जिनके नाम का ठीक-ठीक पता नहीं, ठीक ही खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न राजा उन्मत्त हो सकता है।
राजदंड कहीं उन्मत्त और आक्रामक न हो जाए, इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है और जाहिर है कि ऐसे राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का, अपरिग्रह का, वैराग्य का, अंहकार-हीनता का ब्रह्मदण्ड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था। वसिष्ठ के अलावा यह काम और किसी के वश का नहीं था, यह वसिष्ठ ने अपने आचरण से ही आगे चलकर सिद्ध कर दिया।
हिमालय से उतरकर वसिष्ठ जब अयोध्या आए, तब मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। इक्ष्वाकु ने उन्हें अपना कुलगुरू बनाया और तब से एक परम्परा की शुरूआत हुई कि राजबल का नियमन ब्रह्मबल से होगा और एक शानदार तालमेल और संतुलन का सूत्रपात शासन व्यवस्था में ही नहीं समाज में भी हुआ। यहां तक कि क्रमश: एक सामाजिक आदर्श बन गया कि जब भी रथ पर जा रहे राजा को सामने स्नातक या विद्वान मिल जाए तो राजा को चाहिए कि वह अपने रथ से उतरे, प्रणाम करे और आगे बढ़े।
एक बड़े विचार या आदर्श की स्थापना जितनी मुश्किल होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण होता है और अगर वसिष्ठों का खूब सम्मान इस देश की परम्परा में है तो जाहिर है कि इस आदर्श का पालन करने में वसिष्ठों ने अनेक कष्ट भी सहे होंगे। कुछ कष्ट तो हमारे इतिहास में बाकायदा दर्ज हैं।
मसलन अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी थू-थू हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा तो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम जला डाला। फिर से वापस लौटे वसिष्ठों में दशरथ और राम के कुलगुरू वसिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी, शांतशील और तपोनिष्ठ साबित हुए कि उन्होंने परम्परा से उनसे शत्रुता कर रहे विश्वामित्रों पर अखंड विश्वास कर राम और लक्ष्मण को उनके साथ वन भेज दिया।
उसी परम्परा में एक मैत्रावरूण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवां हिस्सा है। इतना विराट बौद्धिक योगदान करने वाले कुल में एक शक्ति वसिष्ठ हुए जिनके पास कामधेनु थी जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। पर घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया।
जो लोग सिर्फ राजाओं के कारनामों और देशों की लड़ाइयों में ही इतिहास ढूंढ़ने की इतिश्री मान लेते हैं, उनके लिए वसिष्ठ का भला क्या महत्व हो सकता है? कुछ नहीं, इसलिए हम भारतीय, सिर्फ हम भारतीय ही समझ सकते हैं कि कितना कठिन काम उन वसिष्ठों ने किया और कितना नया और विलक्षण योगदान उन्होंने भारत की सभ्यता के विकास में किया। जाहिर है कि इसका श्रेय उन आद्य वसिष्ठ को जाता है जिन्होंने राजदंड के ऊपर ब्रह्मदंड का संयम रखने का विचार इस देश को दिया, जिस पर यह देश आज तक आचरण कर रहा है।

Saturday, January 22, 2011

राष्ट्र सर्वोपरि, सियासी रसूख खुदगर्जी नहीं- राष्ट्रीय एकता यात्रा के प्रसंग में-भरतचंद्र नायक

जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के ऐतिहासिक लालचौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने के संकल्प की घोषणा के साथ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खबरों के मानचित्र पर आ गये हैं। दो घोषणाएं देश की जनता में चर्चा का विषय बन चुकी हैं। 12 जनवरी को पं. बंगाल के कोलकता नगर में तिरंगा ध्वज भेंट करते हुए जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ठाकुर रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद चंटर्जी और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के उत्कट राष्ट्रप्रेम की सरिता प्रवाहित की, राष्ट्रीय एकता यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट हो गया कि संकल्प यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। यह भारतीयता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। राष्ट्रीय अखण्डता का उद्धोष है। जम्म -कश्मीर में अलगाववादियों ने देश की अखण्डता को खंडित करने का जो मंसूबा बांधा है, उसका माकूल जवाब राष्ट्रीय एकता का उद्धोष ही हो सकता है। दूसरी खबर राष्ट्रीय एकता यात्रा के जम्मू कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबंध के फरमान को केंद्र सरकार की मौन सहमति कौतुहल का विषय रही।
ऐसे में बरबस इतिहास के धुंधले पृष्ठ सामने आते हैं। भारत की स्वतंत्रता के साथ अहम सवाल देशी रियायतों के विलीनीकरण का था। यह प्रश्न रियासतों के राजा, महाराजा की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया था। वे जहां चाहे विलय कर लें। जम्मू कश्मीर के महाराजा हरीसिंह की भारत में विलय की इच्छा के बावजूद कुछ झिझक थी। पं.जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को रिहा कर उन्हें जम्मू कश्मीर के प्रमुख की मान्यता दे दी जाए। इसके लिए महाराजा हरीसिंह रजामंद नहीं थे। इस दुविधा का लाभ पाकिस्तान के हुक्मरान उठाने के लिए तत्पर देखे गए और उन्होंने अक्टूबर 1947 के पहले हमले में ही सामूहिक हमला कर अराजकता फैलाने और कब्जा करने की योजना बना ली। उनका मकसद दुनिया को यह दिखाना था कि राजा के विरूद्ध बगाबत हो रही है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां यह भांप चुकी थीं। कबायली हमले के वेश में पाकिस्तान की सेना के हमले की जानकारी, षड्यंत्रों की सूचना रियासत के दीवान मेहर चंद महाजन को दी गई। स्वयंसेवकों ने साहसिक करतब दिया। इसी का नतीजा था कि महाराजा हरीसिंह के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। उन्हें तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री वल्लभभाई पटेल की तासीर और तदबीर पता थी। सरदार पटेल से हरीसिंह ने सारी परिस्थिति पर चर्चा की। सरदार पटेल को पता था कि हरीसिंह और गुरु गोलवलकर में सैध्दांतिक घनिष्ठता है। इस घनिष्ठता का आधार सियासत नहीं राष्ट्रवाद का जबा था। पटेल ने सोचा कि लाभ उठाया जा सकता है। मेहरचंद महाजन को सरदार पटेल ने गुरुजी और हरीसिंह की तत्काल भेंट कराने का मिशन सौंपा और विशेष विमान का प्रबंध किया गया। 17 अक्टूबर को गुरुजी श्रीनगर पहुंचे। गुरुजी और महाराजा हरिसिंह के बीच बैठक हुई। इस बैठक में मेहरचंद के अलावा कोई चौथा व्यक्ति था तो राजकुमार कर्ण सिंह थे, जो पैर में प्लास्टर बांधे पड़े थे। मुद्दे की बात यह थी कि हरीसिंह ने आशंका जतायी थी कि पं.नेहरू की जिद शेख अब्दुल्ला को रिहाकर शासक की मान्यता दिलाने की है। लेकिन इससे प्रजा के दुखी होने और भारत विरोधी गतिविधियां आरंभ होने की आशंका बनी रहेगी। गुरुजी ने तब उनकी चिंता से साक्षात्कार करते हुए भरोसा दिलाया कि विलय के बाद सरदार पटेल पूरा बंदोबस्त करेंगे। प्रजा रंजन में कोई कमी नहीं रखी जावेगी। गुरुजी ने हरीसिंह को सलाह दी कि उनकी हिफाजत की दृष्टि से वे जम्मू पहुंचें, जहां स्वयंसेवक भी उनकी सुरक्षा में प्राण न्यौछावर कर देंगे। गुरुजी 19 अक्टूबर, को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और सरदार पटेल को विवरण के साथ आश्वस्त कर दिया। विलीनीकरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए सरदार पटेल ने स्वराष्ट्र मंत्रालय के सचिव वी पी मेनन को भेजा। 26 अक्टूबर, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर हो गए। साधिकार विलय होने की बात शेख अब्दुल्ला ने संविधान सभा में तस्तीक भी की थी। शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला यह भी भूल रहे हैं कि 1975 में जब शेख अब्दुल्ला और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ था, वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों पर शेख अब्दुल्ला ने स्वीकृति की मोहर लगायी थी। सभी प्रावधान पुन: स्वीकार किये गये थे। उमर अब्दुल्ला अब अलगाववादियों के प्रवक्ता बनकर खुद संवैधानिक पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार गवां रहे हैं। विलय पर उमर का सवाल हरीसिंह की दूरदर्शी की याद दिलाता है।
जम्मू कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला खानदान की चाल, चरित्र और चेहरा हमेशा बदलता रहा है। जब वहां दो निशान, दो विधान, दो प्रधान की व्यवस्था पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐतराज उठाया, कमोबेश कांग्रेस की स्थिति आज की तरह शतुर्मुर्ग की तरह ही थी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ का नेतृत्व करते हुए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट व्यवस्था का विरोध किया। 1953 में डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट के प्रवेश के आंदोलन की अगुवाई की। शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर सीमा पर ऐसे स्थान पर गिरफ्तार किया, जहां भारत के न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं था। डॉ. मुखर्जी ने भारतीय अखण्डता के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तब जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख की निर्ममता ने डॉ. मुखर्जी का बलिदान ले लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जब डॉ. मुखर्जी के परिवार को शोक संवेदना भेजी, तब डॉ. मुखर्जी की माता जी ने एक ही मांग की थी कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत की संदिध परिस्थिति की जांच के लिए न्यायिक आयोग बनाए, जो कभी नहीं बना। ऐसा क्यों नहीं किया गया, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित बना है। उनके बलिदान की वजह से दो प्रधान, दो निशान की व्यवस्था बदल गयी। प्रवेश परमिट की अनिवार्यता समाप्त हुई। आज जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है, तो उन राष्ट्रवादियों की वजह से है आज जिन्हें श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण करने से रोका जा रहा है। इसकी वजह अलगाववादियों का विरोध है, जिसे शह पाकिस्तान से और समर्थन नेशनल कांफ्रेंस तथा कांग्रेस से मिल रहा है।
दरअसल कश्मीर में कांटे बोये गये और घटनाओं के वस्तुनिष्ठ लेखन का कार्य नहीं होने दिया गया। महाराजा हरीसिंह को गलत पेश किया गया कि वे विलय के हिमायती नहीं थे। वास्तविकता यह है कि शेख अब्दुल्ला और पं.नेहरू को हरी सिंह से चिढ़ थी। क्योंकि हरीसिंह ने शेख अब्दुल्ला की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये थे। हरीसिंह की राष्ट्रीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। उन्होंने 1930 में लंदन में गोल मेज कांफ्रेंस में कहा था कि वह पहले भारतीय हैं और बाद में महाराज हैं। तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंट वेटन और पं.नेहरू ही कश्मीर के भारत में विलय के हिमायती नहीं थे। तत्कालीन घटनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन यह भी सही है कि जो विलय पत्र हस्तातरित हुआ है
और वह सभी रियायतों जैसा है। उस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यदि जे.के. का विलय अधूरा है, तो अविभाजित भारत की सभी रियासतों का विलय अधूरा है। आज के संदर्भ में उमर अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है, वे यह बताना चाहते हैं कि रिश्ते अस्थायी हैं। उनका भारत के साथ संवैधानिक रिश्ता विवादित है। गोया खानदानी पैंतरा भयादोहन का जारी है। कांग्रेस मसूमियत का लबाया ओढे है। राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला की जुगलबंदी ने राष्ट्र की अखण्डता को हल्के पन से लेकर साबित कर दिया है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और उसकी कीमत चुकाने के लिए उत्सर्ग के मायने उनके लिए कुछ भी नहीं है। सत्ता की अपरिहार्यता उनके लिए अहम बात है।
कहा जाता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। पं. नेहरू ने लम्हे मे जो खता की उसकी सजा साठ वर्षों से देशवासी भुगत रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुराणों में सरस्वती प्रदेश कहा गया। नब्बे प्रतिशत वित्तीय पोषण देश के करदाताओं के पैसे से हो रहा है। उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की अवाम के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी है कि वे न तो भारतीय संघ की कठपुतली हैं और भीख का कटोरा लिए दिल्ली जाते हैं। जब पाकिस्तान की शह पर जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यकों को खदेड़ा जा रहा है, विशेष सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को समाप्त करने, स्वायत्तता 1953 पूर्व की देन, फौज में कटौती करने के लिए षड्यंत्र रचे जा रहे है। पाकिस्तान झंडा फहराया जाना आम रिवाज बन रहा है। किसी भी राष्ट्र भक्त, जमात ने साहस तो किया कि जम्मू कश्मीर के अवाम को बताये कि पूरा देश उनके साथ है। पाक परस्त अलगाववादी समूचे जम्मू कश्मीर को हांक नहीं सकते हैं। इस राष्ट्रीय एकता यात्रा से उमर अब्दुल्ला को खौफजदा होने की आवश्यकता नहीं रही है। लेकिन उमर अब्दुल्ला तो अलगाववादियों के प्रवक्ता की तरह राष्ट्रवादियों के साथ अलगाववादियों की तरह बर्ताव कर रहे हैं। जिसे इतिहास माफ नहीं करेगा। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की असलियत से पूरा देश वाकिफ हो रहा है. इन्हें राष्ट्रीय अखण्डता, देश की सुरक्षा सर्वोपरि नहीं है। ये निरे राजनीति में रसूख पालने और खुदगर्जी की फसल काटने के तलफगार है। राजनीति में वंश परंपरा के गुणदोष नहीं आने दिये जाए, इसलिए ही दुनिया ने लोकतंत्र का वरण किया है। राजशाही को समाप्त किया है, इसे एक विंडवना ही कहा जाएगा कि महाराजा हरीसिंह ने जिन घटनाओं की पूर्व कल्पना कर अपनी आशंका व्यक्त की थी, ये चित्र पट की तरह घटित हुई है। हरीसिंह का जो विरोध तब शेख अब्दुल्ला कर रहे थे आज भी राष्ट्रवादी ही जम्मू कश्मीर के शासक दल नेशनल कांफ्रेंस के निशाने पर हैं। कांग्रेस के राडार पर राष्ट्रीय अखण्डता से अधिक सियासत रही है, जो आज भी है।

Friday, January 21, 2011

काफ़ी कैट (मार्जार काफ़ी) नखरों की‌ हद्द नहीं-विश्व मोहन तिवारी

नखरों की‌ हद्द नहीं
जब मैने पढ़ा कि दिल्ली में ही एक विदेशी कम्पनी की काफ़ी की दूकान में एक प्याला काफ़ी‌ दो या ढाई सौ रुपये का मिलता है वह कीमत की ऊँचाई आज के विदेशी भक्त्तों की श्रद्धा के बावजूद समझ में नहीं आ रही थी।
'डाउन टु अर्थ' में पढ़ा कि एक जंगली मार्जार ( सिवैट – जंगली बिल्ली) जब काफ़ी के गूदेदार फ़ल खाकर उसके बीज अपने गू (मल) में त्याग देता या देती है, तब जो उस बीज की‌ काफ़ी बनती‌ है, उसकी महिमा अपरम्पार है। यह माना जाता (प्रचारित किया जाता है) है कि एशियाई ताड़ -मार्जार की अँतड़ियों के आवास में से होकर जब वह बीज निकलता है तब उसमें दिव्य गंध का वास हो जाता है, यद्यपि इस प्रक्रिया का कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। ऐसा माना जाता है कि मार्जार की अँतड़ियों में आवासीय एन्ज़ाइम इसके कड़ुएपन को कम करते हैं और सुगंध को बढ़ाते हैं।
भारत में‌ इस तरह की काफ़ी के अकेले उत्पादक (?) सत्तर वर्षीय टी एस गणेश कहते हैं कि उऩ्हें इस काफ़ी और सामान्य दक्षिण भारतीय काफ़ी के स्वाद या सुगंध में कोई अंतर नहीं मालूम होता।
यह काफ़ी तथा कथित 'वैश्विक ग्राम' के खुले बाजार में ३०, ००० रुपए प्रति किग्रा. बिकती‌है !! विश्व् मे ( दक्षिण एशिया में) इसका कुल उत्पादन मात्र २०० किग्रा. प्रतिवर्ष है। और मजे की‌ बात यह है कि यद्यपि विश्व में इसके बीज का उत्पादन ( जंगल में खोजकर बटोरना) बहुत कम होता है, विदेशी‌ कम्पनियां टी एस गणेश के 'मार्जार काफ़ी' बीजों को खरीदने के लिये तैयार नहीं हैं, यद्यपि उऩ्होंने उन बीजों की प्रशंसा ही की है - यह हमारे विदेशी भक्ति का प्रतिदान है। यदि उऩ्हें यहां के बीजों की गुणवत्ता पर संदेह है तब क्या उनके सुगंध विशेषज्ञ इसे परख नहीं सकते !
टी एस गणेश तो उस दिव्य काफ़ी के बीज लगभग सामान्य काफ़ी बीजों की तरह ही मात्र २५० रु. किलो ही बेचते हैं, क्योंकि भारत में इसकी माँग नहीं‌ है। किन्तु हमारी विदेश भक्ति देखिये कि यद्यपि विदेशी कम्पनी हम से खरीदने को तैयार नहीं हैं, हम दो या ढाई सौ रु. में इस विदेशी काफ़ी का एक प्याला पीने को तैयार हैं, हमारा आखिर 'काफ़ी कैट' (कापी कैट) होना तो एक महान गुण है ही।

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किसान आत्महत्या: त्रासदी कहीं नियति न बन जाए- के. एन. गोविन्दाचार्य

दिनांक 14 अक्टूबर, 2006 की दोपहर मैं ‘विदर्भ’ में कारेजा के निकट मनोरा तहसील के ‘इंजोरी’ गांव में गया। इस गांव के एक किसान ने आत्महत्या की थी। उसके परिवार से मिलना, सांत्वना देना मेरा मकसद था।
शिवसेना के नेता श्री दिवाकर मेरे साथ थे। संत गजानन भी हमारे साथ चल रहे थे। हम गांव पहुंचकर आत्महत्या कर चुके किसान की पत्नी, उसकी तीन बच्चियों और उसके बूढ़े पिता से मिले। तीस हजार रू. का चैक मुआवजे के रूप में इस परिवार को मिला था। डेढ़ एकड़ जमीन के मालिकाना हक वाले इस परिवार में कमाने वाला अब कोई नहीं बचा था। 6600 रू. बैंक का कर्ज था। साहूकारों के कर्ज का हिसाब किसी को मालूम नहीं। जिंदगी चलाने का कोई जरिया जब किसान के पास नहीं बचा तो उसे अपनी जीवनलीला समाप्त करना ही सबसे आसान लगा।
किसान आत्महत्या करेगा, एक दिन पहले तक इसका भान न परिवार को था, न दोस्तों को, न गांव के किसी अन्य व्यक्ति को था। सभी अवाक थे। वह किसान जिस जाति का था, उसमें पुनर्विवाह स्वीकार्य नहीं है। उसकी जवान पत्नी का क्या होगा? उस किसान के बूढ़े बाप की जगह अपने को रखकर जब मैंने देखा तो मेरी आत्मा कांप गई। बूढ़े बाप की दीनता मेरे लिए असह्य हो रही थी। 200 घरों वाले उस गांव में हर कोई अकेला है। जिन्दगी से जूझ रहा है। पूरा गांव अगली आत्महत्या की प्रतीक्षा में था।
यह कहानी एक गांव की नहीं थी। यवत्माल जिले में श्री किशोर तिवारी के साथ मंगी कोलामपुर, हिवरा बारसा, मुडगवान और दुभाटी आदि कई अन्य गांवों में भी मैं गया। यहां एक और बात देखने में आई। 20 एकड़ जमीन के मालिक किसानों को बीज के लिए बैंक कर्ज देने के लिए तैयार नहीं क्योंकि, कानून के तहत उस जमीन को बेचा नहीं जा सकता है। लेकिन, वही बैंक उसी गांव में मोटरसाइकिल खरीदने के लिए धड़ल्ले से कर्ज बांटते दिखे । खेती पर कर्ज देकर बैंक जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। बैंको से निराश किसानों को मजबूरन जुताई-बुवाई के लिए सूदखोर साहूकारों की शरण में जाना पड़ा जो प्रतिमास 20 प्रतिशत ब्याज की दर से पैसा दे रहे थे।
बेहिसाब कर्ज चढ़ने और आपसदारी न रहने से हर किसान अकेले ही जिन्दगी से जूझता दिखा। विदर्भ के किसानों में परिवार से, गांव से बाहर जाकर काम करने की आदत नहीं है। कृषि और वह भी नकदी फसलों की खेती पर पूर्णतया आश्रित वहां के किसानों के पास पूरक आमदनी का कोई जरिया नहीं है। पशुपालन, बागवानी एवं विभिन्न प्रकार के पारंपरिक ग्रामीण काम-धंधों से वह लगभग कट चुका है। पशुपालन की यहां क्या स्थिति है, इसका अनुमान मनुष्य-मवेशी अनुपात के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। दो सौ वर्ष पहले यहां एक मनुष्य के पीछे दो मवेशी होते थे, सौ वर्ष पहले यह घटकर एक मनुष्य पर एक मवेशी हो गया, जबकि वर्ष 2000 के आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में चार मनुष्यों पर एक ही मवेशी रह गया था।
पिछले कई वर्षों से किसानों को हरित क्रांति के नाम पर जिस रास्ते पर धकेला गया, उसके परिणाम अब दिख रहे हैं। किसान कर्ज रूपी ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जहां से बाहर जाने का उसे एक ही मार्ग दिखता है, वह है आत्महत्या। किसान करे भी तो क्या करे! फसल खराब होने की बात तो छोड़िए,फसल अच्छी होने पर भी उसकी समस्याएं खत्म नहीं होतीं। घर के खर्चे और साहूकारों के कर्ज उसे अपनी फसल को औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर कर देते हैं। जिस कपास की वहां किसान प्रमुख रूप से खेती करता हैं, उसे बिचौलिए 2100 रू. क्विंटल के भाव से बेचते हैं। किंतु, किसानों को वे 1400 रुपए क्विंटल में ही अपनी कपास बेचने के लिए मजबूर कर देते हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा कपास के लिए 2700 रू. क्विंटल की कीमत देने का वायदा किसानों के साथ एक छलावा ही साबित हुआ है। हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने किसानों की कोई मदद करने की बजाय उन्हें अपनी समस्याओं से निपटने के लिए योग करने की सलाह दे डाली।
सरकारों ने शराब से अपनी आमदनी बढ़ाने के चक्कर में गांवों में भी शराब की ढेर सारी दुकानें खोल दीं। समाज के प्रति उसकी क्या जिम्मेदारी है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। अब यही सरकार किसानों की आत्महत्या के लिए शराबखोरी को जिम्मेदार ठहरती है।
विदर्भ के जिस भी गांव में मैं गया, सभी जगह मुर्दनी छाई हुई थी। लगा जैसे- गांव के गांव मौत की प्रतीक्षा में हैं। ऐसी लाचारी, ऐसी बेबसी मैंने कभी नहीं देखी थी। इतनी निराशा का अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ था। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये गांव उसी देश में हैं जिसमें दिल्ली और मुम्बई जैसे शहर हैं। पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाओं से कोसों दूर जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे विदर्भ के किसानों को देखकर यह कोई भी आसानी से महसूस कर सकता है कि आजाद भारत के नागरिकों के बीच की खाईं कितनी चौड़ी हो चुकी है।
ऐसा नहीं है कि किसानों की स्थिति केवल विदर्भ में ही खराब है। हरित क्रांति के झंडाबरदार राज्य हरियाणा और पंजाब के किसान भी हताश हैं। आंध्रप्रदेश में किसानों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। आत्महत्या की काली साया बांदा, हमीरपुर तक पहुंच गई है। उत्तरप्रदेश, बिहार के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति इसलिए जोर नहीं पकड़ रही है क्योंकि, वहां के छोटे-बड़े सभी किसानों ने शहरों में जाकर वैकल्पिक आय के साधन ढूंढ लिए हैं। लेकिन जहां भी वैकल्पिक आय नहीं है, वहां किसान आत्महत्या के कगार पर हैं।
किसान पूरे देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि, केन्द्रीय कृषि मंत्री इसे कोई बड़ी समस्या ही नहीं मानते। उनका मानना है कि इतने बड़े देश में कुछ किसानों की आत्महत्या से घबराने की जरूरत नहीं है। सरकार की उपेक्षा तो किसान सह सकते हैं लेकिन, सरकार की उन नीतियों से लड़ने में वे स्वयं को अक्षम पा रहे हैं, जो उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर कर रही हैं। सरकारी नीतियों का ही परिणाम है कि आज जमीन बीमार हो चुकी है। जलस्तर नीचे भाग रहा है। फसलें जहरीली हो चुकी हैं और पशुधन नाममात्र को बचा है।
विगत दस वर्षों से कृषि उपज लगभग स्थिर बने हुए हैं। 65 प्रतिशत किसानों का सकल घरेलू उत्पाद में केवल 24 प्रतिशत हिस्सा रह गया है। उद्योग क्षेत्र में तो कर्जमाफी के नए-नए उपचार हुए पर कृषि के बारे में बहाने बनाए गए। कोढ़ में खाज की स्थिति तब हो गई जब विश्व व्यापार संगठन की शह पर सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। आज विदेशी शोषकों की एक नई फौज खड़ी हो गई है। गावों का खेती-किसानी से नाता टूट रहा है। जमीन, जल, जंगल, जगत, जानवर बेजान होते जा रहे हैं। रक्षक ही भक्षक है तो किससे फरियाद करें! इसी उलझन में किसान आज स्वयं को पा रहा है।
ऐसा हुआ क्यों! कबसे ऐसी स्थितियां बननें लगीं? क्या कारण थे? इन सब पहलुओं पर विचार जरूरी है। जब हमें सही कारण मालूम होंगे तो हम सही समाधान भी ढूंढ सकेंगे।
क्यों हुआ, कैसे हुआ?
कभी सोने की चिड़िया कही जाने वाली भारत की सामर्थ्य और समृद्धि का आधार स्तम्भ यहां की कृषि व्यवस्था थी। कृषि, गौपालन और वाणिज्य के त्रिकोण के कारण भारत में कभी दूध-दही की नदियां बहा करती थीं।
विशेष भौगोलिक स्थिति और अपार जैव विविधता वाले इस देश में सही वितरण और संयमित उपभोग, विकास का अभौतिक आयाम और मूल्यबोध, सत्ता और संस्कार का उचित समन्वय, समृद्धि और संस्कृति का मेल एवम् ममता और मुदिता की दृष्टि हुआ करती थी। इसी सबसे भारत की चमक पूरे विश्व में फैलती थी। यहां जल, जंगल, जमीन और जानवर का मेल अन्योन्याश्रित था। और इसी मेल के आधार पर समाज जीवन की रचना होती थी।
समृद्ध और समर्थ भारत की व्यवस्था को 1500 वर्षों के विदेशी हमलों में उतना नुकसान नहीं पहुंचा जितना पिछले 500 वर्षों में पहुंचा। इसमें भी पिछले 250 वर्षों में जितना नुक्सान हुआ करीब उतना ही हमने पिछले 50 वर्षों में गंवाया है।
1781-93 तक के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों के कारण गांवों के सामुदायिक जीवन और पारस्परिक आत्मनिर्भरता पर आघात हुआ। अंग्रेजों द्वारा थोपे गए विदेशी माल के कारण यहां के कारीगर, दस्तकार बेरोजगार हो गये और खेती को अपना पेशा बनाने लगे। एक तरफ गोरों के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों (स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी) की वजह से आम किसान कर्ज के बोझ से दबने लगा। दूसरी तरफ कारीगर और दस्तकार खेती करने लगे। पहले जहां देश की 33 प्रतिशत जनसंख्या ही कृषि पर आश्रित थी, वहीं 1950 में 75 प्रतिशत भारतीय कृषि पर आश्रित हो गए। खेती पर दबाव बढ़ा। खेती योग्य जमीन कम पड़ने लगी। जंगल साफ कर खेत बनाए जाने लगे और कारीगरी-दस्तकारी के धंधे कमजोर पड़ने लगे।
अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए गांवों में जमीनों के मालिकाना हक की व्यवस्था में भारी फेरबदल किया। जहां जमीन पहले समुदाय की हुआ करती थी, वहीं अंग्रेजों ने कानून बनाकर जमीन को निजी हाथों में दे दिया। इससे लगान वसूलने और जमीन हथियाने में आसानी हुई और ‘साहूकार-महाजन व्यवस्था’ को बढ़ावा मिला।
1800 से 1900 तक गोहत्या में बेतहाशा वृद्धि हुई क्योंकि, अंग्रेजों का मुख्य भोजन गोमांस था। इससे मनुष्य-मवेशी अनुपात असंतुलित हो गया। फलत: 1900 से पारम्परिक खेती बिगड़ने लगी और उत्पादकता घटती गई। कारखानिया माल के पक्ष में और खेतिया माल के खिलाफ नीतियां बनीं। ऐसा अंग्रेजों के हित में था। वे कृषि उपज को कच्चे माल के तौर पर सस्ते में खरीदते और फिर अपने कारखानिया माल को महंगे दामों में भारत की जनता को बेचते। भारत का कारखानियां माल इंग्लैण्ड में न बिक सके, इसके लिए कई उपाय किए गए। इस सबसे किसानों की हालत और बिगड़ी, शहरीकरण बढ़ा तथा शहर-गांव के बीच की दूरी भी बढ़ी।
1947 में अंग्रेज तो चले गए पर उनकी बनाई गई व्यवस्था के खतरों को हमारे नेता या तो समझ नहीं पाए या फिर जानबूझ कर अनजान बने रहे। जमीन, जंगल, जल और जानवर की सुध नहीं ली गई। पारम्परिक खेती के ज्ञान की उपेक्षा की गई। देशी व्यवस्थाओं को सुधारने-संवारने की बजाए उसके बारे में हीन भावना को बढ़ाया गया। आजादी के बाद किसानों और गांवों के देश में पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य लक्ष्य ‘भारी औद्योगीकरण’ रखा गया। इसके लिए नेहरू जी की महानता का गुणगान किया गया। कृषि में लागत बढ़ने लगी, दाम कम मिलने लगे। कृषि एक अप्रतिष्ठित आजीविका बन गई। पढ़े-लिखे लोग खेती से हटने लगे। हरित क्रान्ति के नाम पर गेहूं क्रान्ति हुई। सब्सिडी और सरकारी खरीद पर निर्भरता बढ़ी। रासायनिक खाद और कीटनाशकों का धुआंधार प्रयोग होने लगा।
एक आम किसान को अब खेती करना अलाभप्रद लगने लगा। केवल खेती से किसान को अपनी आजीविका चलाने में मुश्किलें आने लगी। स्वाभाविक रूप से किसान को जंगल और जानवरों से अपनी पूरक आमदनी की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन, इसकी उपेक्षा करके उसे दूसरे व्यवसायों की ओर मोड़ा गया। गांव का किसान धीरे-धीरे शहर का मजदूर बन गया। फलत: शहरों पर दबाव बढ़ा, प्रदूषण बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी। जो किसान अभी भी गांवों में रह गये उनका झुकाव नकदी फसलों की ओर हुआ। इससे लागत मूल्य और बढ़ा तथा खेती और मंहगी हो गई। खेती न तो पारम्परिक रही और न ही औद्योगिक हो पाई।
नए दौर में जेनेटिक बीजों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले वर्षों में किसानों की इस पर निर्भरता तेजी से बढ़ी है। आयात-निर्यात नीति भी किसानों के खिलाफ हो गई है। कृषि उपज तो बढ़ी लेकिन किसान घाटे में ही रहे। अब किसान मंहगी खेती के लिए कर्ज लेने लगा। इस बाजारवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर पहुंच चुके किसान के हाथों में मानसून और बाजार पर नियंत्रण तो है नहीं। इसलिए उसकी उपज या तो मानसून की कमी के कारण चौपट हो जाती है या जब ठीक होती है तो सही दाम नहीं मिलते। कर्ज लेकर भारी लागत वाली खेती कर रहा किसान एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया जहां सत्ता राजनीति उसके खिलाफ खड़ी है।
भारत में पिछले 15 वर्षों में हुए उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण ने किसानों की कब्र पर कई ईंटें और जोड़ दी है। वैश्वीकरण के इस दौर में डब्ल्यू.टी.ओ. के पैरोकार कृषि क्षेत्र में समरूपता चाहते हैं जो कभी भी सम्भव नहीं है। कृषि अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह की है। उसका अर्थशास्त्र भी अलग-अलग तरह का है। भूमि-कृषि अनुपात, भूमि-किसान अनुपात, जैव विविधता, उपज के प्रकार, खान-पान की आदतें, पर्यावरण, मौसम सभी अलग-अलग हैं। फिर भी डब्ल्यू.टी.ओ. में कृषि को लेकर पूरे विश्व के लिए एक नियम बनाने की कोशिश की जा रही है। निहित स्वार्थों के चलते हमारे नेता उनका समर्थन करने में लगे हैं।
वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को झेल रहे किसान जहां एक ओर थक रहे हैं, वहीं उनके लिए कठिनाइयां और बढ़ती जा रही हैं। 1980 के दशक से किसानों द्वारा बड़ी संख्या में ‘आत्महत्या’ का दौर शुरू हुआ। आंध्रप्रदेश और पंजाब में ‘आत्महत्या’ की घटनाएं सबसे पहले दिखीं। कर्ज वसूली, कुर्की और अपमान आत्महत्या के मुख्य कारण बन गए।
2000 आते-आते समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। बाजार के दबाव में नीतियां किसानों के खिलाफ बनीं और सत्ता संवेदनहीन होती गई। गोपाल के इस देश में गौ और किसान हाशिए पर चले गये। एक की हत्या बढ़ी और दूसरे की आत्महत्या। जंगल, जानवर और घरेलू उद्योगों से पूरक आमदनी का रास्ता गंवा चुके किसान को कर्ज और भुखमरी से मुक्ति पाने का अब एक ही रास्ता दिखायी देता है ‘आत्महत्या’। यह ‘आत्महत्या’ महामारी का रूप ले रही है। पंजाब, आन्ध्रप्रदेश के बाद विदर्भ ही नहीं केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान भी उसी राह पर चल पड़े है।
जहां लोग खेती छोड़ ज्यादा से ज्यादा संख्या में रोजगार तलाशने के लिए शहरों की ओर भागे वहां अभाव में आत्महत्या की घटनाएं कम दिख रही हैं। जहां परम्परागत खेती से किसान जुड़े रहे, जमीन, जल, जंगल, जानवर, का संतुलन बना रहा, कर्ज कम लिया गया, मशीनी-रासायनिक खेती की ओर झुकाव कम हुआ वहां भी ‘आत्महत्या’ का संकट कम है।
आज विदर्भ की आत्महत्याओं ने सभी को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। एक आम किसान की ‘आत्महत्या’ मौजूदा कृषि व्यवस्था और इसकी नीतियों के विरोध में किए गए रक्तिम हस्ताक्षर हैं। घातक नीतियों के शिकार हो चुके किसान के विरोध करने का यह एक लाचार तरीका है।
क्या होना चाहिए?
हर समस्या का कोई न कोई समाधान होता है, निदान का अपना तरीका होता है। लेकिन, जब किसान अपनी समस्या का समाधान ‘आत्महत्या’ को मान ले तो समझ लेना चाहिए कि संकट अति गंभीर है। वास्तव में किसानों की आत्महत्या सिर्फ किसानों की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की समस्या है। देश की संपूर्ण सज्जन शक्ति को इस समस्या का समाधान ढूंढना होगा।
जिस व्यवस्था में किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर है, उससे हम कोई उम्मीद नहीं कर सकते। बिना समस्या को समझे किसी पैकेज की घोषणा से किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी। आज जरूरत है एक वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने की। इस वैकल्पिक व्यवस्था में तात्कालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य बनाकर देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से समस्या के समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगे। ये प्रयास रचनात्मक और संघर्षात्मक दोनों होंगे। तभी स्थायी समाधान निकालने में सफलता मिलेगी।
तात्कालिक उपाय :
सजिन परिवारों में आत्महत्या हो चुकी है, उन सैकड़ों परिवारों में रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई-दवाई का इंतजाम तुरन्त किया जाए। गांव और स्थानीय समाज की पहल पर सभी जिम्मेदार नागरिक समूह और सेवाभावी संगठन अपने स्तर से सहयोग करें। इन सामूहिक प्रयासों में शिक्षा और चिकित्सा से सम्बन्धित संस्थाओं को भी सहभागी बनाया जाए।
मध्यकालिक उपाय :
समध्यकालिक समाधान में संघर्षात्मक पहलू महत्वपूर्ण है। गाय, खेती, गांव, किसान से जुड़ी विभिन्न प्रतिकूल नीतियों में बदलाव के लिए एक मांगपत्र बनाया जाए और उसकी पूर्ति के लिए देशव्यापी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ चलाया जाए। यह समय की मांग है कि कृषि उपज के मूल्य निर्धारण का सही ढांचा बनाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जाए। विशेष तौर पर सब्सिडी, कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन और खेतिया और कारखानिया माल के दामों में विसंगति के पहलू भी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ द्वारा प्रमुखता से उठाए जाएं। जमीन, जल, जैव विविधता और गौ-संवर्धन को लेकर किसानों के हित में पारदर्शी नीति बननी चाहिए।
दीर्घकालिक उपाय :
दीर्घकालिक योजनाओं पर काम किए जाने के लिए रचनात्मक और संघर्षात्मक पहलू निम्न हैं-
1.मनुष्य-मवेशी अनुपात ठीक किया जाए।
2.जमीन, जल, जंगल, जानवर का संपोषण हो।
3.खेती, गाय, गांव, किसान के अन्तर्सम्बंधों को दृढ़ बनाया जाए। कम पूंजी-कम लागत की बहुफसली कृषि पद्धति पर जोर दिया जाए।
सपरिवार, गांव, समाज के स्तर पर आपसदारी, आत्मीयता और संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर विशेष प्रयास हो।
सशिक्षा को संस्कार और जीवन से जोड़ा जाए।
सविकेन्द्रित, स्वावलम्बी, स्वयंपूर्ण ग्राम समूहों को पुष्ट किया जाए। इस हेतु सभी तरह के किसान संगठन सही तरीके से जमीन, जल, जंगल, जानवर, पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में लगें। लोगों, समूहों और संस्थाओं को जुटाया जाए। गांव, जिला, प्रदेश और अखिल भारतीय स्तर पर संवाद, सहमति और सहकार की कार्यनीति के आधार पर इन्हें संगठित किया जाए। इससे आम लोगों में मुद्दों की समझ और संवेदना बढ़ेगी।
1.किसानों की समस्याओं को केन्द्र में रखकर एक मांगपत्र तैयार हो। इस दस्तावेजीकरण में किसान, असंगठित मजदूर, महिला, कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री एवं विधिवेत्ताओं की भी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
2.राजनीति और अर्थनीति को उपरोक्त उद्देश्यों के लिए स्वदेशी व विकेन्द्रीकरण की कसौटी पर कसा जाए।
3.अधिक उत्पादन सही वितरण, संयमित उपभोग, गरीब के प्रति ममता और धनिक के प्रति मुदिता की भाव भूमि पर समाज की जीवन रचना को अधिष्ठापित किया जाए।
इस सारे काम के लिए रचनात्मक और आन्दोलनात्मक तरीके से धर्म-सत्ता, समाज सत्ता, राजसत्ता एवं अर्थसत्ता को नियोजित करने में पहल होनी चाहिए। इसमें संत शक्ति और मातृशक्ति को विशेष रूप से सहभागी बनाया जाना चाहिए।
किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या इस मानव-समाज की मानवीयता पर कलंक है। समाज की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में हम सब का यह नैतिक कर्तव्य है कि अपने सामने तिल-तिल खत्म होती आदि-सभ्यता की मनुष्यता को बचाएं, भारत की धूमिल पड़ती चमक को बचाएं। यह तभी संभव है जब हम एक किसान के समर्थन में हर मंच से अपनी आवाज बुलन्द करें।
परतंत्र भारत में इस सुजला-सुफला वसुन्धरा की रक्षा के लिए हजारों-लाखों जवानों, किसानों, मजदूरों ने अपनी जान दी है। आज स्वतंत्र भारत में इनका अस्तित्व संकट में है और इन्हें बचाने की बारी हमारी है।