देश में मंहगाई जिस बेतहाशा गति से बढ रही है उससे आम आदमी का चिंतित होना स्वभाविक ही है। दरासल मंहगाई से आम आदमी केवल चिंतित ही नही है बल्कि अनेक स्थानों पर जीवन यात्रा के सूत्र उनके हाथांे से छूटते भी जा रहे हैं। जो वर्ग उत्पादन के क्षेत्र में लगा हुआ है, मसलन किसान और मजदूर, महगाई के कारण उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। यही कारण है पिछले कुछ वर्षो से, नई आर्थिक नीतियों से पटडी न बिठा पाने के कारण आत्महत्या करने वाले मजदूरों और किसानों की संख्या हजारों के आंकडे को पार कर गई है। मंहगाई और मंदी का यह दौर विश्वव्यापी है ऐसे वौद्धिक भाषण देने वाले अनेक विद्वान यत्र तत्र मिल रहे है। अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बूश ने तो विश्व भर की मंहगाई और मंदी की जिम्मेदारी भारतीयों पर ही डाल दी थी । उनका कहना था कि दूनिया भर में खानें पीनें की चीजों की जो कमी हो रही है और जिसके कारण इन चीजों के दाम आसमानो को छू रहे है उसका एक मुख्य कारण भारतीय लोग ही है। उनके अनुसार भारतीय बहुत ज्यादा खाते है या अप्रत्क्ष रूप से जरूरत से भी ज्यादा खाते है। जाहिर है जब एक देश के लोग, खासकर जिसकी आवादी सौ करोड़ को भी पार कर गई हो, ठुंस -ठुंस कर खाएगें तो दूसरे देशो में खाने पीने की चीजों की कमी आएगी और मंहगाई बढे़गी।
अमेरीका में राष्ट्रपति जो आम तौर पर जो वयांन देते हैं, वह उस क्षेत्र के विशेषयज्ञों की राय पर ही आधारित होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरीका के अर्थ-शास्त्रीयों ने काफी खोजबीन करके और अपना मग्ज खपाकर विश्व भर की मंहगाई का जो कारण ढुढा वह भारतीयों के ठुंस-ठुंस कर खाने पीने के सभाव के कारण है। मनमोहन सिंह का भी चितंन के स्तर पर अमेंरीका के अर्थ-शास्त्रीयों की बीरादरी में ही शुमार होता है। अमेरीकी अर्थ-शास्त्र की जिस प्रकार अपनी एक आधार भूमि है उसी प्रकार साम्यवादी अर्थ-शास्त्र की एक विशिष्ट आधार भूमि है। इसी प्रकार भारतीय अर्थ-शास्त्र की एक अपनी परम्परा है। साम्यवादी अर्थ-शास्त्र तो अपने प्रयोग काल में ही पीटता चला आ रहा है और लगभग पीट ही गया है। अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थ-शास्त्र एक ओर शोषण पर आधारित हैं और दूसरी और मानव मन के भीतर सूप्त अवस्था मे पडी पशु वृतियों को जागृत करने के सिद्धात पर आधारित है। भारतीय अर्थ-शास्त्र परम्परा मानव के समर्ग विकास पर केन्द्रित है जिसे कभी दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन का नाम दिया था। यह भारतीय अर्थ-
शास्त्र के कारण ही था। जब पूरा विश्व मंदी की लपेट में आकर लड़खड़ा रहा था तो भारत सफलता पूर्वक इस आंधी को झेल गया।
डॉ0 मनमोहन सिंह अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में भारतीय परम्परा के नही बल्कि अमेरीकी परम्परा के अनुगामी है। दरसल वह अमेरीकी आर्थिक नीतियों को भारत में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में उनका प्रशिक्षण अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थतंत्र मंे ही हुआ है। वह विश्व बैंक के मुलाजिम रह चुके हैं। विश्व बैंक अमेरीकी अर्थिक हितो और आर्थिक नीतियों का दूनिया भर में विस्तार करने के लिए वहुत बढा अडडा है। स्वभाविक है मनमोहन सिंह जब पूरी ईमानदारी से भी भारत मे बढ़ रही महगाई के कारणो की जांच पडताल करने के लिए निकलेगें तो वह उन्ही निष्कर्षो पर पहुचेगें जिन निष्कर्षो पर अमेरीका के राष्ट्रपति पहले ही पहुच चुके है। इसका मुख्य कारण यह है कि कारण निमानसा के लिए जिन सूत्रों और फारमूलांे का प्रयोग अमेरीका के अर्थ-शास्त्री कर रहे हैं उन्ही का प्रयोग डॉ0 मनमोहन सिंह कर रहे हैं।
कुछ अरसा पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश में महगाई वढने का मुख्य कारण यह है कि अब लोग ज्यादा चीजे और ज्यादा उत्पादन खरीद रहे है। सुवाभिक है जब वाजार में खरीददारों की संख्या एक दम बढ जाएगी तो वस्तुओं के दाम भी वढ़ जाएगें। तो महगाई का मुल कारण लोगों की खरीदने की क्षमता वढना है। लेकिन प्रशन है कि आचानक बाजार में इतने खरीददार कैसे आने लगे है। मनमोहन सिंह के पास इसका भी
उत्तर है। उनके अनुसार सरकार ने पिछले कुछ सालो से देश में जो आर्थिक नीतियां जो लागू की है उसके कारण लोगो के पास पैसा बहुत आ गया है। लोग खुशहाल होने लगे हैं। अब उनकी इच्छा अपने जीवन स्तर को उपर उठाने की है। इस लिए वह जेब में पैसा डाल कर बाजार में जाते है और उसके कारण मंहगाई बढ रही है। अर्थ-शास्त्री प्रधानमंत्री के इस पूरे विश्लेषण और स्पष्टीकरण का कुल मिलाकर सार यह है कि देश मंे बढ़ रही मंहगाई वास्तव में उनकी अर्थ नीतियों की सफलता और देश के विकास का संकेत है। यानि जितनी जितनी मंहगाई बढती जाएगी उतना-उतना ही देश विकास करता जाएगा।
अब मनमोहन सिंह अपने इस तर्क और विश्लेषण को खींच कर और आगे ले गए है। उनके अनुसार आर्थिक नीतियों की सफलता के कारण गरीबों के पास भी इतना पैसा आ गया है कि उन्होनें धडले से मांस, मूर्गी, मछली और अडे़ उडाने शुरू कर दिये है। जब गारीब भी खुशहाल हो रहा है और वह दिन रात मछली मूर्गी पर हाथ साफ कर रहा है तो मंहगाई तो बढे़गी ही। इस लिए मंहगाई पर रोने की जरूरत नही है बल्कि ढोल बजाने की जरूरत है क्योकि यह देश में खुशहाली का प्रतिक है। यह अलग बात है कि इस देश के लोग प्याज, आलू, टमाटर, हरी सब्जीयां, दालों इत्यादि की आसमान छुती मंहगाई का रोना रो रहे हैं । मछली, मंास और मूर्गी की मंहगाई की तो किसी ने बात ही नही की । इसमें मनमोहन सिंह का दोष नही है, क्योंकि जब वह भारत की मंहगाई पर अपना यह शोधपत्र अमेरीका में अंग्रेजी भाषा में छपी अर्थ-शास्त्र की किसी किताब के आधार पर लिख रहे होगें तो उसमें दाल और प्याज का उदाहरण तो नही ही होगा। वहां उदाहरण के लिए मांस और मंछली को ही लिया गया होगा।
मनमोहन सिंह के भारत में बढ़ रही मंहगाई पर किए गए इस शोध से अमेरीका के अर्थ-शास्त्री तो प्रसन्न हो सकते है परन्तु भारतीयों को निराशा ही हाथ लगेगी। मनमोहन सिंह की अपनी ही सरकार मनरेगा में करोडों लोगों को एक दिन के लिए 100 रूपये की मजदूरी देती है और वह भी साल में केवल सौ दिन के लिए । यानि एक साल के लिए मजदूर की तनख्वाह केवल दस हजार रूपये । साल भर में दस हजार की कमाई से कोई गरीब आदमी परीवार कैसे पाल सकता है और साथ ही मूर्गा मछली का भोज कैसे उडा सकता है, यह मनमोहन सिंह जैसे अर्थ-शास्त्री ही बेहतर बता सकते है। जिस स्पैकुलेटिव टेªडिंग की शुरूआत मनमोहन सिंह ने खाद्यान के क्षेत्र में भी की है वह किसान और मजदूर को आत्महत्या की और तो ले जा सकता है । मांस, मछली के भोज की और नही । वैसे भी देश के गरीब को भारत सरकार से केवल दाल रोटी की दरकार है, मांस मछली का भोज उन्ही को मुबारक जो दिल्ली में वैठ के गरीब के जख्मों पर नमक मिर्च छिडकते है।
अमेरीका में राष्ट्रपति जो आम तौर पर जो वयांन देते हैं, वह उस क्षेत्र के विशेषयज्ञों की राय पर ही आधारित होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरीका के अर्थ-शास्त्रीयों ने काफी खोजबीन करके और अपना मग्ज खपाकर विश्व भर की मंहगाई का जो कारण ढुढा वह भारतीयों के ठुंस-ठुंस कर खाने पीने के सभाव के कारण है। मनमोहन सिंह का भी चितंन के स्तर पर अमेंरीका के अर्थ-शास्त्रीयों की बीरादरी में ही शुमार होता है। अमेरीकी अर्थ-शास्त्र की जिस प्रकार अपनी एक आधार भूमि है उसी प्रकार साम्यवादी अर्थ-शास्त्र की एक विशिष्ट आधार भूमि है। इसी प्रकार भारतीय अर्थ-शास्त्र की एक अपनी परम्परा है। साम्यवादी अर्थ-शास्त्र तो अपने प्रयोग काल में ही पीटता चला आ रहा है और लगभग पीट ही गया है। अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थ-शास्त्र एक ओर शोषण पर आधारित हैं और दूसरी और मानव मन के भीतर सूप्त अवस्था मे पडी पशु वृतियों को जागृत करने के सिद्धात पर आधारित है। भारतीय अर्थ-शास्त्र परम्परा मानव के समर्ग विकास पर केन्द्रित है जिसे कभी दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन का नाम दिया था। यह भारतीय अर्थ-
शास्त्र के कारण ही था। जब पूरा विश्व मंदी की लपेट में आकर लड़खड़ा रहा था तो भारत सफलता पूर्वक इस आंधी को झेल गया।
डॉ0 मनमोहन सिंह अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में भारतीय परम्परा के नही बल्कि अमेरीकी परम्परा के अनुगामी है। दरसल वह अमेरीकी आर्थिक नीतियों को भारत में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में उनका प्रशिक्षण अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थतंत्र मंे ही हुआ है। वह विश्व बैंक के मुलाजिम रह चुके हैं। विश्व बैंक अमेरीकी अर्थिक हितो और आर्थिक नीतियों का दूनिया भर में विस्तार करने के लिए वहुत बढा अडडा है। स्वभाविक है मनमोहन सिंह जब पूरी ईमानदारी से भी भारत मे बढ़ रही महगाई के कारणो की जांच पडताल करने के लिए निकलेगें तो वह उन्ही निष्कर्षो पर पहुचेगें जिन निष्कर्षो पर अमेरीका के राष्ट्रपति पहले ही पहुच चुके है। इसका मुख्य कारण यह है कि कारण निमानसा के लिए जिन सूत्रों और फारमूलांे का प्रयोग अमेरीका के अर्थ-शास्त्री कर रहे हैं उन्ही का प्रयोग डॉ0 मनमोहन सिंह कर रहे हैं।
कुछ अरसा पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश में महगाई वढने का मुख्य कारण यह है कि अब लोग ज्यादा चीजे और ज्यादा उत्पादन खरीद रहे है। सुवाभिक है जब वाजार में खरीददारों की संख्या एक दम बढ जाएगी तो वस्तुओं के दाम भी वढ़ जाएगें। तो महगाई का मुल कारण लोगों की खरीदने की क्षमता वढना है। लेकिन प्रशन है कि आचानक बाजार में इतने खरीददार कैसे आने लगे है। मनमोहन सिंह के पास इसका भी
उत्तर है। उनके अनुसार सरकार ने पिछले कुछ सालो से देश में जो आर्थिक नीतियां जो लागू की है उसके कारण लोगो के पास पैसा बहुत आ गया है। लोग खुशहाल होने लगे हैं। अब उनकी इच्छा अपने जीवन स्तर को उपर उठाने की है। इस लिए वह जेब में पैसा डाल कर बाजार में जाते है और उसके कारण मंहगाई बढ रही है। अर्थ-शास्त्री प्रधानमंत्री के इस पूरे विश्लेषण और स्पष्टीकरण का कुल मिलाकर सार यह है कि देश मंे बढ़ रही मंहगाई वास्तव में उनकी अर्थ नीतियों की सफलता और देश के विकास का संकेत है। यानि जितनी जितनी मंहगाई बढती जाएगी उतना-उतना ही देश विकास करता जाएगा।
अब मनमोहन सिंह अपने इस तर्क और विश्लेषण को खींच कर और आगे ले गए है। उनके अनुसार आर्थिक नीतियों की सफलता के कारण गरीबों के पास भी इतना पैसा आ गया है कि उन्होनें धडले से मांस, मूर्गी, मछली और अडे़ उडाने शुरू कर दिये है। जब गारीब भी खुशहाल हो रहा है और वह दिन रात मछली मूर्गी पर हाथ साफ कर रहा है तो मंहगाई तो बढे़गी ही। इस लिए मंहगाई पर रोने की जरूरत नही है बल्कि ढोल बजाने की जरूरत है क्योकि यह देश में खुशहाली का प्रतिक है। यह अलग बात है कि इस देश के लोग प्याज, आलू, टमाटर, हरी सब्जीयां, दालों इत्यादि की आसमान छुती मंहगाई का रोना रो रहे हैं । मछली, मंास और मूर्गी की मंहगाई की तो किसी ने बात ही नही की । इसमें मनमोहन सिंह का दोष नही है, क्योंकि जब वह भारत की मंहगाई पर अपना यह शोधपत्र अमेरीका में अंग्रेजी भाषा में छपी अर्थ-शास्त्र की किसी किताब के आधार पर लिख रहे होगें तो उसमें दाल और प्याज का उदाहरण तो नही ही होगा। वहां उदाहरण के लिए मांस और मंछली को ही लिया गया होगा।
मनमोहन सिंह के भारत में बढ़ रही मंहगाई पर किए गए इस शोध से अमेरीका के अर्थ-शास्त्री तो प्रसन्न हो सकते है परन्तु भारतीयों को निराशा ही हाथ लगेगी। मनमोहन सिंह की अपनी ही सरकार मनरेगा में करोडों लोगों को एक दिन के लिए 100 रूपये की मजदूरी देती है और वह भी साल में केवल सौ दिन के लिए । यानि एक साल के लिए मजदूर की तनख्वाह केवल दस हजार रूपये । साल भर में दस हजार की कमाई से कोई गरीब आदमी परीवार कैसे पाल सकता है और साथ ही मूर्गा मछली का भोज कैसे उडा सकता है, यह मनमोहन सिंह जैसे अर्थ-शास्त्री ही बेहतर बता सकते है। जिस स्पैकुलेटिव टेªडिंग की शुरूआत मनमोहन सिंह ने खाद्यान के क्षेत्र में भी की है वह किसान और मजदूर को आत्महत्या की और तो ले जा सकता है । मांस, मछली के भोज की और नही । वैसे भी देश के गरीब को भारत सरकार से केवल दाल रोटी की दरकार है, मांस मछली का भोज उन्ही को मुबारक जो दिल्ली में वैठ के गरीब के जख्मों पर नमक मिर्च छिडकते है।
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