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Manish Pathak M. Sc. in Mathematics and Computing (IIT GUWAHATI) B. Sc. in Math Hons. Langat Singh College /B. R. A. Bihar University Muzaffarpur in Bihar The companies/Organisations in which I was worked earlier are listed below: 1. FIITJEE LTD, Mumbai 2. INNODATA, Noida 3. S CHAND TECHNOLOGY(SCTPL), Noida 4. MIND SHAPERS TECHNOLOGY (CLASSTEACHAR LEARNING SYSTEM), New Delhi 5. EXL SERVICES, Noida 6. MANAGEMENT DEVELOPMENT INSTITUTE, GURUGRAM 7. iLex Media Solutions, Noida 8. iEnergizer, Noida I am residing in Mira Road near Mumbai. Contact numbers To call or ask any doubts in Maths through whatsapp at 9967858681 email: pathakjee@gmail.com

Sunday, February 27, 2011

विज्ञान में सौन्दर्य ? क्या बात कर ऱहे हैं !!---विश्व मोहन तिवारी


सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तो विज्ञान का मूल्य भी होना चाहिये। यद्यपि मूल विज्ञान का तो केवल सत्य से सम्बन्ध है, क्योंकि वह शुद्ध सत्य की खोज कर रहा है। शिवं तो उसके उपयोग करने वालों के ऊपर निर्भर करता है। और सुन्दरता तो देखने वाले की आँख में होती है? फ़िर भी, विज्ञान सममिति को एक महत्वपूर्ण मूल्य मानती है। और सममिति सौन्दर्य का गुण है. अतएव विज्ञान में सौन्दर्य एक मूल्य है। प्रमेय सिद्ध।
नहीं भाई साहब, इतना सरल नहीं है इस प्रश्न का उत्तर! यदि विज्ञान का उद्देश्य ही सत्य की खोज है तब विज्ञान को सौन्दर्य की चिन्ता क्यों करना चाहिये? मान लें किसी विषय पर सत्य और सौन्दर्य में विरोध आ जाता है, तब? तब क्या जो नियम अधिक सुन्दर है वह सत्य है चाहे व जाँच में खरा न उतर रहा हो?
माना, किन्तु मान लें कि विज्ञान का एक नियम जो सुन्दर है वह भी खरा उतर रहा है और दूसरा जो सुन्दर नहीं है, वह भी खरा उतर रहा है तब तो आप सुन्दर नियम को मानेंगे, न कि असुन्दर नियम को। वैज्ञानिक नियम की सुन्दरता कैसे परिभाषित करेंगे ? मान लीजिये कि वह देखने में सरल है। जी हां, सरलतर नियम को प्राथमिकता दी जाना चहिये। सरल होना तो वांछनीय गुण है किन्तु सुन्दरता और सरलता का निश्चित संबन्ध तो नहीं। आधुनिक कला तो अधिकंशतया सरल नहीं कही जा सकती। आइन्स्टाइन के विशेष सापेक्ष सिद्धान्त को लें, वह सरल तो नहीं है - दिक का कैसे संकुचन होता है और काल का विस्फ़ारण कैसे होता है, यह तो सहज बुद्धि से समझना बहुता ही कठिन है, यदि असंभव नहीं। अर्थात हमें विज्ञान के लिये उसी के परिप्रेक्ष्य में सौन्दर्य की परिभाषा करना चाहिये।
अच्छा तो प्रसिद्ध कवि कीट्स का कथन लें, कितना अच्छा कहा है,' सत्य सुन्दर है, और सौन्दर्य सत्य है। आप को इतना ही जानने की आवश्यकता है। भाई हो सकता है कि काव्य में‌ यह सत्य समझ में आए। किन्तु मुझ जैसे वैज्ञानिक को तो इसका अर्थ लगता है कि विज्ञान सत्य है, अत: विज्ञान सुन्दर है। और मुझे केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है। तब मैं कविता क्यों पढ़ूं, या सुन्दर तैलचित्र क्यों देखूं ? आखिर इस सूक्त का क्या अर्थ समझें ?
अरे भाई इसका कुछ अर्थ तो होता होगा। चलें, पता करें। सुन्दरता व्यक्तिपरक अधिक है, वस्तुपरक कम, प्रतियोगिताएं कराने वाले सौन्दर्य विशेषज्ञ शरीर के चाहे जितने माप – ४२-२४-४२ – देते रहें।एक सुन्दर मुख में सममिति तो अत्यावश्यक है, अर्थात मुख के दाहिने भाग और बाएं भाग में एक प्रतिबिम्ब के समान समानता होना चाहिये। यह सममिति जितनी अधिक होगी, उस मुख की सुन्दरता उतनी ही अधिक होगी। और क्या यह सच नहीं है कि चन्द्र के समान मुख अत्यंत सुन्दर माना जाता है, वरन मन्त्रमुग्ध या सम्मोहित करने वाला ! क्योंकि वृत्त की आकृति समतल में सर्वाधिक सममितीय होती है। सममिति सुन्दरता का एक गुण तो है। सुंदरता के पूरे आँकलन के लिये मुख के अंग जैसे नासिका, ओंठ, कान इत्यादि में संतुलन भी देखा जाता है। यह उपांगों का संतुलन तो परम्परा से चालित होता है; यथा कहीं ओंठ मोटे औरे बाहर निकले हुए सुन्दर माने जाते हैं और कहीं पतले ओंठ। यह पारम्परिक मान्यताएं 'वैश्विक' नहीं होतीं, जब कि सममिति वैश्विक होती‌ है। यह भी सच है कि मुख की सममिति इतनी वैश्विक होती‌ है कि कभी उसे और अधिक मह्त्व देने के लिये बालों को असममित शैली‌में बनाया जाता है! और मजे की बात यह है कि किसी कि किसी की सममिति या उपांगों के संतुलन की कोई कमी‌ ही‌ इतनी भा जाती है कि उनके लिये वही व्यक्ति अत्यंत सुन्दर हो जाता है। यह भी दृष्टव्य है कि यह आवश्यक नहीं कि सुन्दर मुख वाले व्यक्ति का हृदय भी दयालु हो, और असुन्दर मुख वाले का क्रूर हो। अर्थात चाक्षुष सौन्दर्य में और व्यक्ति के गुणों में कार्य कारण का सीधा सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं। इसके मह्त्वपूर्ण परिणाम हैं। क्या सौन्दर्य उपयोगी है? प्रसिद्ध नाटककार और व्यंगकार आस्कर वाइल्ड ने कहा था, ' सभी कलाएं अनुपयोगी हैं!' किन्तु आज के समय में शारीरिक सौन्दर्य (डिब्बों(पैकेजिंग) का सौन्दर्य भी) का उपयोग बाज़ार में अनावश्यक वस्तुओं को बेचने में बहुत उपयोगी है,। क्या कोयला अधिक सुन्दर है या हीरा? स्पष्ट है कि सौन्दर्य तथा उपयोगिता का सीधा सम्बन्ध नहीं है। अर्थात चाक्षुष सौन्दर्य के तर्क को वैज्ञानिक सिद्धान्तो पर नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि यह अमूर्त और बौद्धिक होते हैं।विज्ञान में सममिति शब्द का चाक्षुष सममिति से कुछ और ही अर्थ होना चाहिये।
पिकासो ने असममित तथा विकृत चेहरों तथा शरीरों का उपयोग युद्ध की विभीषिका की अभिव्यक्ति के लिये 'ग्युएर्निका' तैलचित्र में बखूबी किया है, और 'ले दैम्वाज़ैल दविनियां' में वेश्याओं पर किये अमानवीय व्यवहार की अभिव्यक्ति के लिये किया है। यह तो कला के नियमों के क्षेत्र की‌ बात है। चित्रों में सुंदरता के लिये रेखा, रंग, प्रकाश–छाया, अंग तथा उपांगों, तथा संरचना में कलात्मक संतुलन आवश्यक है। और तब वह सुंदर चित्र अपने 'रूप' द्वारा अपनी अभिव्यक्ति के कार्य में सफ़ल होता है। अर्थात कला के क्षेत्रमें रूप तथा कथ्य में गहरा संबन्ध होता है। क्या हम रूप (सौन्दर्य) तथा कथ्य के इस संबन्ध की समझ को विज्ञान के क्षेत्र में ले जा सकते हैं? ना और हां।
ना, क्योंकि विज्ञान 'चाक्षुष' विषय नहीं है, यद्यपि चक्षुओं का प्रयोगों में पूरा पूरा उपयोग होता है, क्योंकि विज्ञान तो प्रकृति की घटनाओं को समझने समझाने के लिये शब्दों तथा गणितीय भाषा में अभिव्यक्त करता है। हां, यदि हम सममिति को वैज्ञानिक सिद्धान्तों की प्रक्रियाओं पर लागू करें। वैज्ञानिक सिद्धान्त की प्रक्रियाएं किस अर्थ में सममित हो सकती हैं? यदि कोई सिद्धान्त, जैसे कि गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त यदि पृथ्वी पर और अंतरिक्षी पिण्डों चन्द्र, बृहस्पति, सूर्य, अल्फ़ा सैन्टारी, आकाशगंगा या 'अश्व नीहारिका पर एक ही अर्थ में लागू होता है, तब ऐसे सिद्धान्त को 'दिक में स्थानांतरण' के संदर्भ में सममित कहेंगे। सर्वप्रथम न्यूटन ने इस सिद्धान्त को समझा और परिभाषित किय था, जिसके बल पर संतरिक्षी पिण्डों ( हैवैन्स) तथ इस भूतल पर वही गुरुत्वबल का नियम कार्य करता है। इसने हमारी ब्रह्माण्ड की समझ को सरल कर दिया। कितना मह्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, किन्तु सुन्दर ? क्या हम ऐसे विश्व की कल्पना कर सकते हैं कि जिसमें गुरुत्व सिद्धान्त अलग स्थानों पर अलग। कार या विमानों के आविष्कार की तो बात ही न करें। कितना भ्रम होगा हमें गतियां तथा वेगों को समझने में ! शायद उतना ही जितना कि धर्म निरपेक्षता समझने में आज भारतीयों को हो रहा है जो कितनी विकृतियां फ़ैला रहा है।
क्या गुरुत्व सिद्धान्त काल में स्थानांतरण में भी सममित है? जी हां, जो गुरुत्व सिद्धान्त कल लगता था, वही आज लगता है और कल भी लगेगा (जहां तक हम समझ सकते हैं)। आइन्स्टाइन के क्रान्तिकारी सूत्र, यथा आपेक्षिक सिद्धान्त या E = mc2 भी इसी तरह काल में सममित हैं। यदि ऐसे विज्ञान के मूल सिद्धान्त सममित न हों तब हम प्रकृति की कार्य शैली को नहीं समझ पाएंगे। क्या आश्चर्य कि आइन्स्टाइन ने कहा था कि यह सुखद आश्चर्य है कि ब्रह्माण्ड के कार्य कलाप हमारे समझ में आते हैं। यह तो ठीक है कि e= mc2 सूत्र बहुत ही छोटा, सरल और शक्तिशाली है, किन्तु इन कारणों से इस तरह की सममिति को सुन्दर तो नहीं कह सकते ! ऐसे सूत्रों और अन्य वैज्ञानिक सिद्धान्तों की सममिति ब्रह्माण्ड को बुद्धिगम्य बनाती है, बहुत ही उपयोगी हैं, और मन्त्रमुग्ध भी करती हैं, आप इऩ्हें सुन्दर कहें या न कहें। सरलता और लघुता इऩ्हें और भी अधिक उपयोगी बनाती हैं।
समबाहु त्रिभुज, वर्ग, घन,वृत्त और गोल में सममिति हैं; अर्थात समबाहु त्रिभुज को यदि हम ६०० से घुमाएं तब वह त्रिभुज बिलकुल पहले जैसा दिखेगा । इसी तरह वर्ग और घन को ९०० , वृत और गोल को कितने अंश भी घुमाएं वे बिलकुल पहले जैसे दिखेंगे। अर्थात जब हम किसी वस्तु या सूत्र पर कोई क्रिया करें, जैसे कि ऊपर घुमाने की क्रिया की थी, और वह बिलकुल पहले जैसा व्यवहार करे, तब उस वस्तु में सममिति का गुण है। इसी तरह यदि किसी वैज्ञानिक सूत्र या सिद्धान्त में हम कोई प्रक्रिया करें, जैसे कि हम दिक में स्थानान्तरण करें और वह सिद्धान्त वैसे ही कार्य करे तब उस वैज्ञानिक सिद्धान्त में सममिति है। वैज्ञानिक सिद्धान्तों के संदर्भ में अनेक प्रकार की सममितियां हैं, यथा, दिक में स्थानांतरण, कालांतरण, किसी कोण से घुमाना, सरल रेखा में समवेग, काल का उत्क्रमण (भूतकाल में जाना), दिक में परावर्तन, पदार्थ और प्रतिपदार्थ, क्वाण्टम मैकैनिकल फ़ेज़ आदि।
सरलरेखा में समवेग के संदर्भ में सममिति का एक उदाहरण रुचिकर होगा। विज्ञान के नियम दो विभिन्न वाहनों में जो भिन्न किन्तु समवेग से गतिमान हैं, नहीं‌ बदलेंगे। यह तो सहज ही हमें सही‌ लगता है - गुरुत्वसिद्धान्त उन दोनों वाहनों में समान ही लगेगा। किन्तु विज्ञान तो किसी‌ भी अवधारणा को प्रमाणित करने में विश्वास करता है। एक सरल आपेक्षिक वेग का नियम लें - यदि एक वाहन का भूमिस्थित अवलोकनकर्ता की अपेक्षा स्थिर वेग V (वी) है। उस वाहन में स्थित एक व्यक्ति एक गेंद उसी वाहन की दिशा में स्थिर वेग U (यू) से फ़ेकता है, तब उस गेंद का उस अवलोकनकर्ता के अपेक्षा जो वेग होगा वह दोनों के अर्थात यू (U) + वी (V) योग के बराबर होगा। यह नियम सहज तो लगता है किन्तु इसे वैज्ञानिक दृष्टि से पश्चिम में सबसे पहले गैलीलेओ ने लिखा था। अब वाहनस्थित वह व्यक्ति, बजाय गेंद के, एक टार्च से उसी दिशा में प्रकाश का अंशु फ़ेकता है; प्रकाश अंशु का स्थिर वेग 'सी' ( c ) है। अब भूस्थित उस अवलोकन कर्ता को वह प्रकाश का अंशु सी + वी (c+V) वेग से गमन करता दिखाई देना चाहिये। माइकैलसन -मोर्ले द्वय ने यह प्रयोग बहुत ही सूक्ष्म परिशुद्धता से किया था। किन्तु उस प्रकाश अंशु का वेग हमेशा मात्र 'c' ही पाया गया। उस समय के वैज्ञानिक जगत को यह देखकर बहुत बड़ा धक्का लगा क्योंकि गैलीलेओ के आपेक्षिक सिद्धान्त में उनका अटूट विश्वास था और तब तक हमेशा सही पाया गया था। उन्हें ईथर के अस्तित्व पर भी संदेह हुआ। और जेम्स मैक्सवैल के क्रान्तिकारी सूत्रों पर भी संदेह हुआ। प्रसिद्ध वैज्ञानिक लोरेन्ट्ज़ ने एक ऐसा गणितीय रूपान्तरण खोजा जिसने यह समस्या सुलझा दी। उनकी इस प्रक्रिया के अनुसार प्रकाश का वेग c यद्यपि c +Vमें बदलता था, किन्तु दिक के संकुचन तथा काल के विस्फ़ारण के कारण मात्र c ही दिखाई देता था। वैज्ञानिक जगत बहुत प्रसन्न हुआ, जो कि नहीं होना था। क्योंकि लोरेन्ट्ज़ का कार्य केवल गणितीय जादू था, उसके पीछे कोई वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं था, वह तो बाद में आइन्स्टाइन ने दिया जिससे वे विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वैज्ञानिक सिद्ध हुए। आइन्स्टाइन ने यह स्वयंसिद्ध सत्य माना कि प्रकाश का वेग c सी ब्रह्माण्ड में एक अचर है, जो बदलता नहीं है। अब वह गैलीलेओ का आपेक्षिकी सद्धान्त आइन्स्टाइन आपेक्षिकी सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि सिद्धान्तों की सममिति प्राकृतिक घटनाओं को समझाने के साथ नए सिद्धान्तों के जन्म की भी प्रेरणा बन सकती है।
प्रकृति इतनी सममित क्यों है?
अरे भाई विज्ञान के पास अंतिम क्यों के उत्तर नहीं हैं। ब्रह्माण्ड में एक तरह का एकत्व है तो है, और इसलिये उसके नियम या सिद्धान्त सममित हैं।
ब्रह्माण्ड में एक तरह का एकत्व क्यों है?
इसके उत्तर के लिये आपको दार्शनिकों, विशेषकर उपनिषद के ज्ञाताओं, के पास जाना पड़ेगा।अद्वैत दर्शन कहता है ब्रह्माण्ड में एकत्व है क्योंकि वह एक ब्रह्म से उद्भूत है, वरन वही उसी ब्रह्म का प्रसार है, उसी अव्यक्त का, उसी एक का व्यक्त रूप है। वही एक अनेक बन गया है, एकमेव अद्वितीयम्।एकत्व होना ही है।
अब तो आप रहस्यवाद पर उतर आए।
आप भी इस एकत्व की अनुभूति कर सकते हैं। वह रहस्य इसलिये नहीं है कि हम उसे जान नहीं सकते, वरन इसलिये है कि उसे जानने के बाद भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
विज्ञान में सममिति है और इसलिये सौंदर्य भी है। वह न केवल है, वरन आवश्यक है, और हमारे लिये वरदान है। विज्ञान का सौन्दर्य वास्तव में ब्रह्माण्ड का सौन्दर्य है। ब्रह्माण्ड का सौन्दर्य या विज्ञान का सौंदर्य दिखने का नहीं है वरन सिद्धान्तों के वैश्विक होने का है। क्या हम विज्ञान के सौन्दर्य से कुछ सीख सकते हैं कि हम मात्र दिखने या दिखवट पर न जाएं, वरन गुणों और कार्यों के सौन्दर्य का सम्मान करें ?

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