इसमें और आज की स्थिति में उतना ही अन्तर है जितना कि उस जमाने की प्रौद्योगिकी में और आज की प्रौद्योगिकी में है। आप शायद सहमत न हों, किन्तु थोडा सा गौर तो करें।
आज इस वैज्ञानिक युग में जहां विज्ञान की खोज के प्रकाशन को विद्वानों द्वारा परखा जा सकता है, वहां इस देश में उसी वैज्ञानिक की पदोन्नति होती है जिसके प्रपत्र विदेशी जर्नल अर्थात यू एस ए और ब्रितानी जर्नलों में प्रकाशित हुए हों ! देशी जर्नल में प्रकाशित होते ही उस प्रपत्र को तीसरे दर्जे का मान लिया जाता है। क्या हम लोग विज्ञान में इतने पिछड़े हैं कि एक प्रपत्र को परख नहीं सकते और हमें विदेशी जर्नल की शरण लेना प,डती है ? क्योंकि हम अंग्रेज़ी के गुलाम हैं।
यही बात साहित्य पर या विज्ञान कथा पर लागू होता है। यदि विदेशी पत्रिका में कुछ भी प्रकाशित हो जाए तो लोग उत्सव मनाते हैं, और देशी माध्यम में प्रकाशित हो तो उसे घटिया मानते हैं, क्योंकि हम अंग्रेज़ी के गुलाम हैं।उस जमाने में अंग्रेज़ साहब जैसी हिन्दी बोलता था आज हम सब वैसी ही हिन्दी, उसी शान से, बस शायद थोडी और आधुनिक गुलामी से भरी, बोलते हैं। उस जमाने में हिन्दुस्तानी जितनी शान से अन्ग्रेज़ की सेवा करता था ( फ़ोटोग्राफ़र का कमाल है)
आज हम भी उसी शान से अमेरिकी या ब्रितानी की सेवा करने में अपना गौरव समझते हैं। मेरे एक मित्र की पुत्री अंग्रेज़ी कि पत्रकार थी. उनके पास विवाह के लिये एक लडके का प्रस्ताव आया। उऩ्होने कहा कि मैं अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कैसे कर सकता हूं, क्योंकि वह तो हिन्दी का पत्रकार है !
हमारे प्रसिद्ध स्कूलों के प्रसिद्ध प्रिन्सिपल विद्यार्थियों को हिन्दी में बातचीत करने पर दण्ड देते हैं, वे छोटे से अपने प्यारे 'इंग्लैण्ड' में रहते हैं; वे शायद सपने में उस अंग्रेज़ साहब को पंखा झल रहे हैं।
अंग्रेज़ी राज के ज़माने से हमारे दिलों में यह सपना बैठ गया, तभी तो अंग्रेज़ी को इस देश की राजभाषा बनाया गया। फ़िर क्या था। बहुतों ने मन्नतें कीं कि मेरा बच्चा भी बस जन्म लेते ही साहब के समान गिटपिट बोलने लगे, और मेरा बेटा भी वहीं वैसे ही साहब -सा बैठकर अपने पैरों कि सेवा करवाए किसी घटिया भाषा बोलने वाले से।
आप शायद अभी भी सहमत न हों, कि हम अभी भी गुलाम हैं; तब मैं समझ जाउंगा कि मैं तो घटिया भाषा में बोल रहा हूं, आप कैसे उसे मान सकते हैं।
-- एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी, से. नि.
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