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Manish Pathak M. Sc. in Mathematics and Computing (IIT GUWAHATI) B. Sc. in Math Hons. Langat Singh College /B. R. A. Bihar University Muzaffarpur in Bihar The companies/Organisations in which I was worked earlier are listed below: 1. FIITJEE LTD, Mumbai 2. INNODATA, Noida 3. S CHAND TECHNOLOGY(SCTPL), Noida 4. MIND SHAPERS TECHNOLOGY (CLASSTEACHAR LEARNING SYSTEM), New Delhi 5. EXL SERVICES, Noida 6. MANAGEMENT DEVELOPMENT INSTITUTE, GURUGRAM 7. iLex Media Solutions, Noida 8. iEnergizer, Noida I am residing in Mira Road near Mumbai. Contact numbers To call or ask any doubts in Maths through whatsapp at 9967858681 email: pathakjee@gmail.com

Friday, January 21, 2011

किसान आत्महत्या: त्रासदी कहीं नियति न बन जाए- के. एन. गोविन्दाचार्य

दिनांक 14 अक्टूबर, 2006 की दोपहर मैं ‘विदर्भ’ में कारेजा के निकट मनोरा तहसील के ‘इंजोरी’ गांव में गया। इस गांव के एक किसान ने आत्महत्या की थी। उसके परिवार से मिलना, सांत्वना देना मेरा मकसद था।
शिवसेना के नेता श्री दिवाकर मेरे साथ थे। संत गजानन भी हमारे साथ चल रहे थे। हम गांव पहुंचकर आत्महत्या कर चुके किसान की पत्नी, उसकी तीन बच्चियों और उसके बूढ़े पिता से मिले। तीस हजार रू. का चैक मुआवजे के रूप में इस परिवार को मिला था। डेढ़ एकड़ जमीन के मालिकाना हक वाले इस परिवार में कमाने वाला अब कोई नहीं बचा था। 6600 रू. बैंक का कर्ज था। साहूकारों के कर्ज का हिसाब किसी को मालूम नहीं। जिंदगी चलाने का कोई जरिया जब किसान के पास नहीं बचा तो उसे अपनी जीवनलीला समाप्त करना ही सबसे आसान लगा।
किसान आत्महत्या करेगा, एक दिन पहले तक इसका भान न परिवार को था, न दोस्तों को, न गांव के किसी अन्य व्यक्ति को था। सभी अवाक थे। वह किसान जिस जाति का था, उसमें पुनर्विवाह स्वीकार्य नहीं है। उसकी जवान पत्नी का क्या होगा? उस किसान के बूढ़े बाप की जगह अपने को रखकर जब मैंने देखा तो मेरी आत्मा कांप गई। बूढ़े बाप की दीनता मेरे लिए असह्य हो रही थी। 200 घरों वाले उस गांव में हर कोई अकेला है। जिन्दगी से जूझ रहा है। पूरा गांव अगली आत्महत्या की प्रतीक्षा में था।
यह कहानी एक गांव की नहीं थी। यवत्माल जिले में श्री किशोर तिवारी के साथ मंगी कोलामपुर, हिवरा बारसा, मुडगवान और दुभाटी आदि कई अन्य गांवों में भी मैं गया। यहां एक और बात देखने में आई। 20 एकड़ जमीन के मालिक किसानों को बीज के लिए बैंक कर्ज देने के लिए तैयार नहीं क्योंकि, कानून के तहत उस जमीन को बेचा नहीं जा सकता है। लेकिन, वही बैंक उसी गांव में मोटरसाइकिल खरीदने के लिए धड़ल्ले से कर्ज बांटते दिखे । खेती पर कर्ज देकर बैंक जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। बैंको से निराश किसानों को मजबूरन जुताई-बुवाई के लिए सूदखोर साहूकारों की शरण में जाना पड़ा जो प्रतिमास 20 प्रतिशत ब्याज की दर से पैसा दे रहे थे।
बेहिसाब कर्ज चढ़ने और आपसदारी न रहने से हर किसान अकेले ही जिन्दगी से जूझता दिखा। विदर्भ के किसानों में परिवार से, गांव से बाहर जाकर काम करने की आदत नहीं है। कृषि और वह भी नकदी फसलों की खेती पर पूर्णतया आश्रित वहां के किसानों के पास पूरक आमदनी का कोई जरिया नहीं है। पशुपालन, बागवानी एवं विभिन्न प्रकार के पारंपरिक ग्रामीण काम-धंधों से वह लगभग कट चुका है। पशुपालन की यहां क्या स्थिति है, इसका अनुमान मनुष्य-मवेशी अनुपात के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। दो सौ वर्ष पहले यहां एक मनुष्य के पीछे दो मवेशी होते थे, सौ वर्ष पहले यह घटकर एक मनुष्य पर एक मवेशी हो गया, जबकि वर्ष 2000 के आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में चार मनुष्यों पर एक ही मवेशी रह गया था।
पिछले कई वर्षों से किसानों को हरित क्रांति के नाम पर जिस रास्ते पर धकेला गया, उसके परिणाम अब दिख रहे हैं। किसान कर्ज रूपी ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जहां से बाहर जाने का उसे एक ही मार्ग दिखता है, वह है आत्महत्या। किसान करे भी तो क्या करे! फसल खराब होने की बात तो छोड़िए,फसल अच्छी होने पर भी उसकी समस्याएं खत्म नहीं होतीं। घर के खर्चे और साहूकारों के कर्ज उसे अपनी फसल को औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर कर देते हैं। जिस कपास की वहां किसान प्रमुख रूप से खेती करता हैं, उसे बिचौलिए 2100 रू. क्विंटल के भाव से बेचते हैं। किंतु, किसानों को वे 1400 रुपए क्विंटल में ही अपनी कपास बेचने के लिए मजबूर कर देते हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा कपास के लिए 2700 रू. क्विंटल की कीमत देने का वायदा किसानों के साथ एक छलावा ही साबित हुआ है। हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने किसानों की कोई मदद करने की बजाय उन्हें अपनी समस्याओं से निपटने के लिए योग करने की सलाह दे डाली।
सरकारों ने शराब से अपनी आमदनी बढ़ाने के चक्कर में गांवों में भी शराब की ढेर सारी दुकानें खोल दीं। समाज के प्रति उसकी क्या जिम्मेदारी है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। अब यही सरकार किसानों की आत्महत्या के लिए शराबखोरी को जिम्मेदार ठहरती है।
विदर्भ के जिस भी गांव में मैं गया, सभी जगह मुर्दनी छाई हुई थी। लगा जैसे- गांव के गांव मौत की प्रतीक्षा में हैं। ऐसी लाचारी, ऐसी बेबसी मैंने कभी नहीं देखी थी। इतनी निराशा का अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ था। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये गांव उसी देश में हैं जिसमें दिल्ली और मुम्बई जैसे शहर हैं। पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाओं से कोसों दूर जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे विदर्भ के किसानों को देखकर यह कोई भी आसानी से महसूस कर सकता है कि आजाद भारत के नागरिकों के बीच की खाईं कितनी चौड़ी हो चुकी है।
ऐसा नहीं है कि किसानों की स्थिति केवल विदर्भ में ही खराब है। हरित क्रांति के झंडाबरदार राज्य हरियाणा और पंजाब के किसान भी हताश हैं। आंध्रप्रदेश में किसानों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। आत्महत्या की काली साया बांदा, हमीरपुर तक पहुंच गई है। उत्तरप्रदेश, बिहार के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति इसलिए जोर नहीं पकड़ रही है क्योंकि, वहां के छोटे-बड़े सभी किसानों ने शहरों में जाकर वैकल्पिक आय के साधन ढूंढ लिए हैं। लेकिन जहां भी वैकल्पिक आय नहीं है, वहां किसान आत्महत्या के कगार पर हैं।
किसान पूरे देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि, केन्द्रीय कृषि मंत्री इसे कोई बड़ी समस्या ही नहीं मानते। उनका मानना है कि इतने बड़े देश में कुछ किसानों की आत्महत्या से घबराने की जरूरत नहीं है। सरकार की उपेक्षा तो किसान सह सकते हैं लेकिन, सरकार की उन नीतियों से लड़ने में वे स्वयं को अक्षम पा रहे हैं, जो उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर कर रही हैं। सरकारी नीतियों का ही परिणाम है कि आज जमीन बीमार हो चुकी है। जलस्तर नीचे भाग रहा है। फसलें जहरीली हो चुकी हैं और पशुधन नाममात्र को बचा है।
विगत दस वर्षों से कृषि उपज लगभग स्थिर बने हुए हैं। 65 प्रतिशत किसानों का सकल घरेलू उत्पाद में केवल 24 प्रतिशत हिस्सा रह गया है। उद्योग क्षेत्र में तो कर्जमाफी के नए-नए उपचार हुए पर कृषि के बारे में बहाने बनाए गए। कोढ़ में खाज की स्थिति तब हो गई जब विश्व व्यापार संगठन की शह पर सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। आज विदेशी शोषकों की एक नई फौज खड़ी हो गई है। गावों का खेती-किसानी से नाता टूट रहा है। जमीन, जल, जंगल, जगत, जानवर बेजान होते जा रहे हैं। रक्षक ही भक्षक है तो किससे फरियाद करें! इसी उलझन में किसान आज स्वयं को पा रहा है।
ऐसा हुआ क्यों! कबसे ऐसी स्थितियां बननें लगीं? क्या कारण थे? इन सब पहलुओं पर विचार जरूरी है। जब हमें सही कारण मालूम होंगे तो हम सही समाधान भी ढूंढ सकेंगे।
क्यों हुआ, कैसे हुआ?
कभी सोने की चिड़िया कही जाने वाली भारत की सामर्थ्य और समृद्धि का आधार स्तम्भ यहां की कृषि व्यवस्था थी। कृषि, गौपालन और वाणिज्य के त्रिकोण के कारण भारत में कभी दूध-दही की नदियां बहा करती थीं।
विशेष भौगोलिक स्थिति और अपार जैव विविधता वाले इस देश में सही वितरण और संयमित उपभोग, विकास का अभौतिक आयाम और मूल्यबोध, सत्ता और संस्कार का उचित समन्वय, समृद्धि और संस्कृति का मेल एवम् ममता और मुदिता की दृष्टि हुआ करती थी। इसी सबसे भारत की चमक पूरे विश्व में फैलती थी। यहां जल, जंगल, जमीन और जानवर का मेल अन्योन्याश्रित था। और इसी मेल के आधार पर समाज जीवन की रचना होती थी।
समृद्ध और समर्थ भारत की व्यवस्था को 1500 वर्षों के विदेशी हमलों में उतना नुकसान नहीं पहुंचा जितना पिछले 500 वर्षों में पहुंचा। इसमें भी पिछले 250 वर्षों में जितना नुक्सान हुआ करीब उतना ही हमने पिछले 50 वर्षों में गंवाया है।
1781-93 तक के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों के कारण गांवों के सामुदायिक जीवन और पारस्परिक आत्मनिर्भरता पर आघात हुआ। अंग्रेजों द्वारा थोपे गए विदेशी माल के कारण यहां के कारीगर, दस्तकार बेरोजगार हो गये और खेती को अपना पेशा बनाने लगे। एक तरफ गोरों के जमीन बन्दोबस्ती कानूनों (स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी) की वजह से आम किसान कर्ज के बोझ से दबने लगा। दूसरी तरफ कारीगर और दस्तकार खेती करने लगे। पहले जहां देश की 33 प्रतिशत जनसंख्या ही कृषि पर आश्रित थी, वहीं 1950 में 75 प्रतिशत भारतीय कृषि पर आश्रित हो गए। खेती पर दबाव बढ़ा। खेती योग्य जमीन कम पड़ने लगी। जंगल साफ कर खेत बनाए जाने लगे और कारीगरी-दस्तकारी के धंधे कमजोर पड़ने लगे।
अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए गांवों में जमीनों के मालिकाना हक की व्यवस्था में भारी फेरबदल किया। जहां जमीन पहले समुदाय की हुआ करती थी, वहीं अंग्रेजों ने कानून बनाकर जमीन को निजी हाथों में दे दिया। इससे लगान वसूलने और जमीन हथियाने में आसानी हुई और ‘साहूकार-महाजन व्यवस्था’ को बढ़ावा मिला।
1800 से 1900 तक गोहत्या में बेतहाशा वृद्धि हुई क्योंकि, अंग्रेजों का मुख्य भोजन गोमांस था। इससे मनुष्य-मवेशी अनुपात असंतुलित हो गया। फलत: 1900 से पारम्परिक खेती बिगड़ने लगी और उत्पादकता घटती गई। कारखानिया माल के पक्ष में और खेतिया माल के खिलाफ नीतियां बनीं। ऐसा अंग्रेजों के हित में था। वे कृषि उपज को कच्चे माल के तौर पर सस्ते में खरीदते और फिर अपने कारखानिया माल को महंगे दामों में भारत की जनता को बेचते। भारत का कारखानियां माल इंग्लैण्ड में न बिक सके, इसके लिए कई उपाय किए गए। इस सबसे किसानों की हालत और बिगड़ी, शहरीकरण बढ़ा तथा शहर-गांव के बीच की दूरी भी बढ़ी।
1947 में अंग्रेज तो चले गए पर उनकी बनाई गई व्यवस्था के खतरों को हमारे नेता या तो समझ नहीं पाए या फिर जानबूझ कर अनजान बने रहे। जमीन, जंगल, जल और जानवर की सुध नहीं ली गई। पारम्परिक खेती के ज्ञान की उपेक्षा की गई। देशी व्यवस्थाओं को सुधारने-संवारने की बजाए उसके बारे में हीन भावना को बढ़ाया गया। आजादी के बाद किसानों और गांवों के देश में पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य लक्ष्य ‘भारी औद्योगीकरण’ रखा गया। इसके लिए नेहरू जी की महानता का गुणगान किया गया। कृषि में लागत बढ़ने लगी, दाम कम मिलने लगे। कृषि एक अप्रतिष्ठित आजीविका बन गई। पढ़े-लिखे लोग खेती से हटने लगे। हरित क्रान्ति के नाम पर गेहूं क्रान्ति हुई। सब्सिडी और सरकारी खरीद पर निर्भरता बढ़ी। रासायनिक खाद और कीटनाशकों का धुआंधार प्रयोग होने लगा।
एक आम किसान को अब खेती करना अलाभप्रद लगने लगा। केवल खेती से किसान को अपनी आजीविका चलाने में मुश्किलें आने लगी। स्वाभाविक रूप से किसान को जंगल और जानवरों से अपनी पूरक आमदनी की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन, इसकी उपेक्षा करके उसे दूसरे व्यवसायों की ओर मोड़ा गया। गांव का किसान धीरे-धीरे शहर का मजदूर बन गया। फलत: शहरों पर दबाव बढ़ा, प्रदूषण बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी। जो किसान अभी भी गांवों में रह गये उनका झुकाव नकदी फसलों की ओर हुआ। इससे लागत मूल्य और बढ़ा तथा खेती और मंहगी हो गई। खेती न तो पारम्परिक रही और न ही औद्योगिक हो पाई।
नए दौर में जेनेटिक बीजों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले वर्षों में किसानों की इस पर निर्भरता तेजी से बढ़ी है। आयात-निर्यात नीति भी किसानों के खिलाफ हो गई है। कृषि उपज तो बढ़ी लेकिन किसान घाटे में ही रहे। अब किसान मंहगी खेती के लिए कर्ज लेने लगा। इस बाजारवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर पहुंच चुके किसान के हाथों में मानसून और बाजार पर नियंत्रण तो है नहीं। इसलिए उसकी उपज या तो मानसून की कमी के कारण चौपट हो जाती है या जब ठीक होती है तो सही दाम नहीं मिलते। कर्ज लेकर भारी लागत वाली खेती कर रहा किसान एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया जहां सत्ता राजनीति उसके खिलाफ खड़ी है।
भारत में पिछले 15 वर्षों में हुए उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण ने किसानों की कब्र पर कई ईंटें और जोड़ दी है। वैश्वीकरण के इस दौर में डब्ल्यू.टी.ओ. के पैरोकार कृषि क्षेत्र में समरूपता चाहते हैं जो कभी भी सम्भव नहीं है। कृषि अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह की है। उसका अर्थशास्त्र भी अलग-अलग तरह का है। भूमि-कृषि अनुपात, भूमि-किसान अनुपात, जैव विविधता, उपज के प्रकार, खान-पान की आदतें, पर्यावरण, मौसम सभी अलग-अलग हैं। फिर भी डब्ल्यू.टी.ओ. में कृषि को लेकर पूरे विश्व के लिए एक नियम बनाने की कोशिश की जा रही है। निहित स्वार्थों के चलते हमारे नेता उनका समर्थन करने में लगे हैं।
वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को झेल रहे किसान जहां एक ओर थक रहे हैं, वहीं उनके लिए कठिनाइयां और बढ़ती जा रही हैं। 1980 के दशक से किसानों द्वारा बड़ी संख्या में ‘आत्महत्या’ का दौर शुरू हुआ। आंध्रप्रदेश और पंजाब में ‘आत्महत्या’ की घटनाएं सबसे पहले दिखीं। कर्ज वसूली, कुर्की और अपमान आत्महत्या के मुख्य कारण बन गए।
2000 आते-आते समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। बाजार के दबाव में नीतियां किसानों के खिलाफ बनीं और सत्ता संवेदनहीन होती गई। गोपाल के इस देश में गौ और किसान हाशिए पर चले गये। एक की हत्या बढ़ी और दूसरे की आत्महत्या। जंगल, जानवर और घरेलू उद्योगों से पूरक आमदनी का रास्ता गंवा चुके किसान को कर्ज और भुखमरी से मुक्ति पाने का अब एक ही रास्ता दिखायी देता है ‘आत्महत्या’। यह ‘आत्महत्या’ महामारी का रूप ले रही है। पंजाब, आन्ध्रप्रदेश के बाद विदर्भ ही नहीं केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान भी उसी राह पर चल पड़े है।
जहां लोग खेती छोड़ ज्यादा से ज्यादा संख्या में रोजगार तलाशने के लिए शहरों की ओर भागे वहां अभाव में आत्महत्या की घटनाएं कम दिख रही हैं। जहां परम्परागत खेती से किसान जुड़े रहे, जमीन, जल, जंगल, जानवर, का संतुलन बना रहा, कर्ज कम लिया गया, मशीनी-रासायनिक खेती की ओर झुकाव कम हुआ वहां भी ‘आत्महत्या’ का संकट कम है।
आज विदर्भ की आत्महत्याओं ने सभी को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। एक आम किसान की ‘आत्महत्या’ मौजूदा कृषि व्यवस्था और इसकी नीतियों के विरोध में किए गए रक्तिम हस्ताक्षर हैं। घातक नीतियों के शिकार हो चुके किसान के विरोध करने का यह एक लाचार तरीका है।
क्या होना चाहिए?
हर समस्या का कोई न कोई समाधान होता है, निदान का अपना तरीका होता है। लेकिन, जब किसान अपनी समस्या का समाधान ‘आत्महत्या’ को मान ले तो समझ लेना चाहिए कि संकट अति गंभीर है। वास्तव में किसानों की आत्महत्या सिर्फ किसानों की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की समस्या है। देश की संपूर्ण सज्जन शक्ति को इस समस्या का समाधान ढूंढना होगा।
जिस व्यवस्था में किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर है, उससे हम कोई उम्मीद नहीं कर सकते। बिना समस्या को समझे किसी पैकेज की घोषणा से किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी। आज जरूरत है एक वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने की। इस वैकल्पिक व्यवस्था में तात्कालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य बनाकर देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से समस्या के समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगे। ये प्रयास रचनात्मक और संघर्षात्मक दोनों होंगे। तभी स्थायी समाधान निकालने में सफलता मिलेगी।
तात्कालिक उपाय :
सजिन परिवारों में आत्महत्या हो चुकी है, उन सैकड़ों परिवारों में रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई-दवाई का इंतजाम तुरन्त किया जाए। गांव और स्थानीय समाज की पहल पर सभी जिम्मेदार नागरिक समूह और सेवाभावी संगठन अपने स्तर से सहयोग करें। इन सामूहिक प्रयासों में शिक्षा और चिकित्सा से सम्बन्धित संस्थाओं को भी सहभागी बनाया जाए।
मध्यकालिक उपाय :
समध्यकालिक समाधान में संघर्षात्मक पहलू महत्वपूर्ण है। गाय, खेती, गांव, किसान से जुड़ी विभिन्न प्रतिकूल नीतियों में बदलाव के लिए एक मांगपत्र बनाया जाए और उसकी पूर्ति के लिए देशव्यापी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ चलाया जाए। यह समय की मांग है कि कृषि उपज के मूल्य निर्धारण का सही ढांचा बनाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जाए। विशेष तौर पर सब्सिडी, कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन और खेतिया और कारखानिया माल के दामों में विसंगति के पहलू भी ‘किसान हित रक्षा आन्दोलन’ द्वारा प्रमुखता से उठाए जाएं। जमीन, जल, जैव विविधता और गौ-संवर्धन को लेकर किसानों के हित में पारदर्शी नीति बननी चाहिए।
दीर्घकालिक उपाय :
दीर्घकालिक योजनाओं पर काम किए जाने के लिए रचनात्मक और संघर्षात्मक पहलू निम्न हैं-
1.मनुष्य-मवेशी अनुपात ठीक किया जाए।
2.जमीन, जल, जंगल, जानवर का संपोषण हो।
3.खेती, गाय, गांव, किसान के अन्तर्सम्बंधों को दृढ़ बनाया जाए। कम पूंजी-कम लागत की बहुफसली कृषि पद्धति पर जोर दिया जाए।
सपरिवार, गांव, समाज के स्तर पर आपसदारी, आत्मीयता और संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर विशेष प्रयास हो।
सशिक्षा को संस्कार और जीवन से जोड़ा जाए।
सविकेन्द्रित, स्वावलम्बी, स्वयंपूर्ण ग्राम समूहों को पुष्ट किया जाए। इस हेतु सभी तरह के किसान संगठन सही तरीके से जमीन, जल, जंगल, जानवर, पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में लगें। लोगों, समूहों और संस्थाओं को जुटाया जाए। गांव, जिला, प्रदेश और अखिल भारतीय स्तर पर संवाद, सहमति और सहकार की कार्यनीति के आधार पर इन्हें संगठित किया जाए। इससे आम लोगों में मुद्दों की समझ और संवेदना बढ़ेगी।
1.किसानों की समस्याओं को केन्द्र में रखकर एक मांगपत्र तैयार हो। इस दस्तावेजीकरण में किसान, असंगठित मजदूर, महिला, कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री एवं विधिवेत्ताओं की भी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
2.राजनीति और अर्थनीति को उपरोक्त उद्देश्यों के लिए स्वदेशी व विकेन्द्रीकरण की कसौटी पर कसा जाए।
3.अधिक उत्पादन सही वितरण, संयमित उपभोग, गरीब के प्रति ममता और धनिक के प्रति मुदिता की भाव भूमि पर समाज की जीवन रचना को अधिष्ठापित किया जाए।
इस सारे काम के लिए रचनात्मक और आन्दोलनात्मक तरीके से धर्म-सत्ता, समाज सत्ता, राजसत्ता एवं अर्थसत्ता को नियोजित करने में पहल होनी चाहिए। इसमें संत शक्ति और मातृशक्ति को विशेष रूप से सहभागी बनाया जाना चाहिए।
किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या इस मानव-समाज की मानवीयता पर कलंक है। समाज की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में हम सब का यह नैतिक कर्तव्य है कि अपने सामने तिल-तिल खत्म होती आदि-सभ्यता की मनुष्यता को बचाएं, भारत की धूमिल पड़ती चमक को बचाएं। यह तभी संभव है जब हम एक किसान के समर्थन में हर मंच से अपनी आवाज बुलन्द करें।
परतंत्र भारत में इस सुजला-सुफला वसुन्धरा की रक्षा के लिए हजारों-लाखों जवानों, किसानों, मजदूरों ने अपनी जान दी है। आज स्वतंत्र भारत में इनका अस्तित्व संकट में है और इन्हें बचाने की बारी हमारी है।

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