भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है।
जब हम विकास की बात करते हैं तो प्राय: हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है।
भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्रीकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य विकसित हुई। यहां समृध्दि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुईं। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी। समय-समय पर परिमार्जन की व्यवस्था भी बनती गई। देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्रीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया। विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है।
विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है। विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आक्रामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्रीकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूषित संकल्पना है।
भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदनुसार शिक्षा संस्कार भी हो। समाज में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम समाज कैसा चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है। इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुत: विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते? एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है।
भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृध्द नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है। अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते।
भारत के विकास की दिशा में सोचने पर मेरे ध्यान में आता है कि यहां ऐसी नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे परिवार की इकाई मजबूत बने। दरअसल, भारत की संरचना ही ऐसी है कि हम यहां एक-दूसरे के साथ एक खास तरह की डोर में बंधे बगैर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हमारे सामाजिक संबंधों को तय करने में भी हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। हम सब अपने-अपने परिवार से ही संस्कार ग्रहण्ा करते हैं। जब परिवार नामक इकाई मजबूत रहेगी तभी सही मायने में उसके सदस्यों के व्यक्तित्व का समग्र विकास हो पाएगा। आजकल देखने में आ रहा है कि परिवार नामक इकाई कमजोर होती जा रही है। अलगाव बढ़ता जा रहा है। लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। इसका असर समाज में साफ तौर पर दिखने लगा है। भय और असुरक्षा का माहौल बढ़ता जा रहा है। सोचने का दायरा सिमट कर रह गया है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने की मानसिकता में आज लोग आ गए हैं। अगर हम वाकई इस दिशा में सुधार करना चाहते हैं तो हमारी नीतियां ऐसी हों जो परिवार नामक इकाई को मजबूत कर सकें।
देश के विकास के बारे में जब हम सोचें तो यह बात भी जेहन में रहनी चाहिए कि इसके लिए नारी की सुरक्षा, मर्यादा और सहभागिता सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है। भारत में नारी को मातृशक्ति का दर्जा दिया गया है। पर हकीकत में यह धारणा बस किताबों में ही रह गई है। व्यावहारिक तौर पर समाज में महिलाओं को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है, जिसकी हकदार वो हैं। हमें राष्ट्र के विकास की नीतियों के निर्धारण के वक्त इस बात का खयाल रखना होगा। आजादी के साठ साल गुजरने के बावजूद हम देख सकते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। ऊंचे ओहदों की बात करें तो वहां तो महिलाएं और भी कम दिखती हैं। अगर हम समग्र विकास चाहते हैं तो आधी आबादी की सहभागिता को बढ़ाए बगैर ऐसा नहीं हो सकता।
देश के विकास के दौरान समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहना बेहद जरूरी है। आजकल देखा जा रहा है कि समृध्दि के लिए संस्कृति की उपेक्षा की जा रही है। समृध्दि भी जनसाधारण की नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों की। देश की नीतियां पूंजीपरस्त हो गई हैं और उसमें थैलीशाहों का हित सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है। यदि हम समाज का समग्र विकास चाहते हैं तो समृध्दि और संस्कृति में संतुलन साधना बेहद जरूरी है। यह संतुलन साधे बगैर समाज में विकास की बात करना बेमानी होगा।
दरअसल, आज इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हम आखिर समृध्दि किस कीमत पर चाहते हैं। क्या अपनी परंपराओं को मिटाकर लाई जा रही तथाकथित समृध्दि की हमें जरूरत है? और अगर हमारा जवाब नकारात्मक है तो आखिर हमारे लिए विकास का रास्ता क्या हो? आखिर कैसे हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समृध्दि की दिशा में बढ़ें? कैसे हम अपनी संस्कृति को ही समृध्दि के लिए उपयोग में ला सकें? ये कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर बातचीत करने की आज जरूरत है।
स्वस्थ विकास तो मनुष्य के साथ-साथ जमीन, जल, जंगल और जानवर के विकास से भी जुड़ा है। इनकी उपेक्षा करके विकास की परिभाषा गढ़ेंगे तो वह टिकाऊ नहीं होगा। पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्र को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्र को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा।
यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती। ऐसे लोग भी अपने देश में है जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें। अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा के बजाए समृध्दि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समयबध्द कार्यक्रम लागू किए जाएं।
भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनैतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनैतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरूआत होनी चाहिए।
देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है। न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।
समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रें को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत के सामाजिक विकास में यहां के धर्मस्थलों की अहम भूमिका रही है। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।
शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एवं जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो।
देशी चिकित्सा पध्दतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवनशैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पध्दतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृध्दि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानक’ तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को मिल पाएगा।
जब हम विकास की बात करते हैं तो प्राय: हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है।
भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्रीकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य विकसित हुई। यहां समृध्दि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुईं। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी। समय-समय पर परिमार्जन की व्यवस्था भी बनती गई। देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्रीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया। विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है।
विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है। विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आक्रामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्रीकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूषित संकल्पना है।
भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदनुसार शिक्षा संस्कार भी हो। समाज में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम समाज कैसा चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके।
मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है। इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुत: विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते? एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है।
भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है।
भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृध्द नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है। अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते।
भारत के विकास की दिशा में सोचने पर मेरे ध्यान में आता है कि यहां ऐसी नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे परिवार की इकाई मजबूत बने। दरअसल, भारत की संरचना ही ऐसी है कि हम यहां एक-दूसरे के साथ एक खास तरह की डोर में बंधे बगैर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हमारे सामाजिक संबंधों को तय करने में भी हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। हम सब अपने-अपने परिवार से ही संस्कार ग्रहण्ा करते हैं। जब परिवार नामक इकाई मजबूत रहेगी तभी सही मायने में उसके सदस्यों के व्यक्तित्व का समग्र विकास हो पाएगा। आजकल देखने में आ रहा है कि परिवार नामक इकाई कमजोर होती जा रही है। अलगाव बढ़ता जा रहा है। लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। इसका असर समाज में साफ तौर पर दिखने लगा है। भय और असुरक्षा का माहौल बढ़ता जा रहा है। सोचने का दायरा सिमट कर रह गया है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने की मानसिकता में आज लोग आ गए हैं। अगर हम वाकई इस दिशा में सुधार करना चाहते हैं तो हमारी नीतियां ऐसी हों जो परिवार नामक इकाई को मजबूत कर सकें।
देश के विकास के बारे में जब हम सोचें तो यह बात भी जेहन में रहनी चाहिए कि इसके लिए नारी की सुरक्षा, मर्यादा और सहभागिता सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है। भारत में नारी को मातृशक्ति का दर्जा दिया गया है। पर हकीकत में यह धारणा बस किताबों में ही रह गई है। व्यावहारिक तौर पर समाज में महिलाओं को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है, जिसकी हकदार वो हैं। हमें राष्ट्र के विकास की नीतियों के निर्धारण के वक्त इस बात का खयाल रखना होगा। आजादी के साठ साल गुजरने के बावजूद हम देख सकते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। ऊंचे ओहदों की बात करें तो वहां तो महिलाएं और भी कम दिखती हैं। अगर हम समग्र विकास चाहते हैं तो आधी आबादी की सहभागिता को बढ़ाए बगैर ऐसा नहीं हो सकता।
देश के विकास के दौरान समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहना बेहद जरूरी है। आजकल देखा जा रहा है कि समृध्दि के लिए संस्कृति की उपेक्षा की जा रही है। समृध्दि भी जनसाधारण की नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों की। देश की नीतियां पूंजीपरस्त हो गई हैं और उसमें थैलीशाहों का हित सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है। यदि हम समाज का समग्र विकास चाहते हैं तो समृध्दि और संस्कृति में संतुलन साधना बेहद जरूरी है। यह संतुलन साधे बगैर समाज में विकास की बात करना बेमानी होगा।
दरअसल, आज इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हम आखिर समृध्दि किस कीमत पर चाहते हैं। क्या अपनी परंपराओं को मिटाकर लाई जा रही तथाकथित समृध्दि की हमें जरूरत है? और अगर हमारा जवाब नकारात्मक है तो आखिर हमारे लिए विकास का रास्ता क्या हो? आखिर कैसे हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समृध्दि की दिशा में बढ़ें? कैसे हम अपनी संस्कृति को ही समृध्दि के लिए उपयोग में ला सकें? ये कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर बातचीत करने की आज जरूरत है।
स्वस्थ विकास तो मनुष्य के साथ-साथ जमीन, जल, जंगल और जानवर के विकास से भी जुड़ा है। इनकी उपेक्षा करके विकास की परिभाषा गढ़ेंगे तो वह टिकाऊ नहीं होगा। पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्र को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्र को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा।
यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती। ऐसे लोग भी अपने देश में है जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें। अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा के बजाए समृध्दि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समयबध्द कार्यक्रम लागू किए जाएं।
भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनैतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनैतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरूआत होनी चाहिए।
देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है। न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।
समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रें को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत के सामाजिक विकास में यहां के धर्मस्थलों की अहम भूमिका रही है। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।
शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एवं जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो।
देशी चिकित्सा पध्दतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवनशैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पध्दतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृध्दि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानक’ तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को मिल पाएगा।
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