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Manish Pathak M. Sc. in Mathematics and Computing (IIT GUWAHATI) B. Sc. in Math Hons. Langat Singh College /B. R. A. Bihar University Muzaffarpur in Bihar The companies/Organisations in which I was worked earlier are listed below: 1. FIITJEE LTD, Mumbai 2. INNODATA, Noida 3. S CHAND TECHNOLOGY(SCTPL), Noida 4. MIND SHAPERS TECHNOLOGY (CLASSTEACHAR LEARNING SYSTEM), New Delhi 5. EXL SERVICES, Noida 6. MANAGEMENT DEVELOPMENT INSTITUTE, GURUGRAM 7. iLex Media Solutions, Noida 8. iEnergizer, Noida I am residing in Mira Road near Mumbai. Contact numbers To call or ask any doubts in Maths through whatsapp at 9967858681 email: pathakjee@gmail.com

Saturday, January 22, 2011

राष्ट्र सर्वोपरि, सियासी रसूख खुदगर्जी नहीं- राष्ट्रीय एकता यात्रा के प्रसंग में-भरतचंद्र नायक

जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के ऐतिहासिक लालचौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने के संकल्प की घोषणा के साथ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खबरों के मानचित्र पर आ गये हैं। दो घोषणाएं देश की जनता में चर्चा का विषय बन चुकी हैं। 12 जनवरी को पं. बंगाल के कोलकता नगर में तिरंगा ध्वज भेंट करते हुए जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ठाकुर रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद चंटर्जी और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के उत्कट राष्ट्रप्रेम की सरिता प्रवाहित की, राष्ट्रीय एकता यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट हो गया कि संकल्प यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। यह भारतीयता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। राष्ट्रीय अखण्डता का उद्धोष है। जम्म -कश्मीर में अलगाववादियों ने देश की अखण्डता को खंडित करने का जो मंसूबा बांधा है, उसका माकूल जवाब राष्ट्रीय एकता का उद्धोष ही हो सकता है। दूसरी खबर राष्ट्रीय एकता यात्रा के जम्मू कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबंध के फरमान को केंद्र सरकार की मौन सहमति कौतुहल का विषय रही।
ऐसे में बरबस इतिहास के धुंधले पृष्ठ सामने आते हैं। भारत की स्वतंत्रता के साथ अहम सवाल देशी रियायतों के विलीनीकरण का था। यह प्रश्न रियासतों के राजा, महाराजा की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया था। वे जहां चाहे विलय कर लें। जम्मू कश्मीर के महाराजा हरीसिंह की भारत में विलय की इच्छा के बावजूद कुछ झिझक थी। पं.जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को रिहा कर उन्हें जम्मू कश्मीर के प्रमुख की मान्यता दे दी जाए। इसके लिए महाराजा हरीसिंह रजामंद नहीं थे। इस दुविधा का लाभ पाकिस्तान के हुक्मरान उठाने के लिए तत्पर देखे गए और उन्होंने अक्टूबर 1947 के पहले हमले में ही सामूहिक हमला कर अराजकता फैलाने और कब्जा करने की योजना बना ली। उनका मकसद दुनिया को यह दिखाना था कि राजा के विरूद्ध बगाबत हो रही है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां यह भांप चुकी थीं। कबायली हमले के वेश में पाकिस्तान की सेना के हमले की जानकारी, षड्यंत्रों की सूचना रियासत के दीवान मेहर चंद महाजन को दी गई। स्वयंसेवकों ने साहसिक करतब दिया। इसी का नतीजा था कि महाराजा हरीसिंह के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। उन्हें तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री वल्लभभाई पटेल की तासीर और तदबीर पता थी। सरदार पटेल से हरीसिंह ने सारी परिस्थिति पर चर्चा की। सरदार पटेल को पता था कि हरीसिंह और गुरु गोलवलकर में सैध्दांतिक घनिष्ठता है। इस घनिष्ठता का आधार सियासत नहीं राष्ट्रवाद का जबा था। पटेल ने सोचा कि लाभ उठाया जा सकता है। मेहरचंद महाजन को सरदार पटेल ने गुरुजी और हरीसिंह की तत्काल भेंट कराने का मिशन सौंपा और विशेष विमान का प्रबंध किया गया। 17 अक्टूबर को गुरुजी श्रीनगर पहुंचे। गुरुजी और महाराजा हरिसिंह के बीच बैठक हुई। इस बैठक में मेहरचंद के अलावा कोई चौथा व्यक्ति था तो राजकुमार कर्ण सिंह थे, जो पैर में प्लास्टर बांधे पड़े थे। मुद्दे की बात यह थी कि हरीसिंह ने आशंका जतायी थी कि पं.नेहरू की जिद शेख अब्दुल्ला को रिहाकर शासक की मान्यता दिलाने की है। लेकिन इससे प्रजा के दुखी होने और भारत विरोधी गतिविधियां आरंभ होने की आशंका बनी रहेगी। गुरुजी ने तब उनकी चिंता से साक्षात्कार करते हुए भरोसा दिलाया कि विलय के बाद सरदार पटेल पूरा बंदोबस्त करेंगे। प्रजा रंजन में कोई कमी नहीं रखी जावेगी। गुरुजी ने हरीसिंह को सलाह दी कि उनकी हिफाजत की दृष्टि से वे जम्मू पहुंचें, जहां स्वयंसेवक भी उनकी सुरक्षा में प्राण न्यौछावर कर देंगे। गुरुजी 19 अक्टूबर, को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और सरदार पटेल को विवरण के साथ आश्वस्त कर दिया। विलीनीकरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए सरदार पटेल ने स्वराष्ट्र मंत्रालय के सचिव वी पी मेनन को भेजा। 26 अक्टूबर, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर हो गए। साधिकार विलय होने की बात शेख अब्दुल्ला ने संविधान सभा में तस्तीक भी की थी। शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला यह भी भूल रहे हैं कि 1975 में जब शेख अब्दुल्ला और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ था, वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों पर शेख अब्दुल्ला ने स्वीकृति की मोहर लगायी थी। सभी प्रावधान पुन: स्वीकार किये गये थे। उमर अब्दुल्ला अब अलगाववादियों के प्रवक्ता बनकर खुद संवैधानिक पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार गवां रहे हैं। विलय पर उमर का सवाल हरीसिंह की दूरदर्शी की याद दिलाता है।
जम्मू कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला खानदान की चाल, चरित्र और चेहरा हमेशा बदलता रहा है। जब वहां दो निशान, दो विधान, दो प्रधान की व्यवस्था पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐतराज उठाया, कमोबेश कांग्रेस की स्थिति आज की तरह शतुर्मुर्ग की तरह ही थी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ का नेतृत्व करते हुए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट व्यवस्था का विरोध किया। 1953 में डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट के प्रवेश के आंदोलन की अगुवाई की। शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर सीमा पर ऐसे स्थान पर गिरफ्तार किया, जहां भारत के न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं था। डॉ. मुखर्जी ने भारतीय अखण्डता के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तब जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख की निर्ममता ने डॉ. मुखर्जी का बलिदान ले लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जब डॉ. मुखर्जी के परिवार को शोक संवेदना भेजी, तब डॉ. मुखर्जी की माता जी ने एक ही मांग की थी कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत की संदिध परिस्थिति की जांच के लिए न्यायिक आयोग बनाए, जो कभी नहीं बना। ऐसा क्यों नहीं किया गया, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित बना है। उनके बलिदान की वजह से दो प्रधान, दो निशान की व्यवस्था बदल गयी। प्रवेश परमिट की अनिवार्यता समाप्त हुई। आज जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है, तो उन राष्ट्रवादियों की वजह से है आज जिन्हें श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण करने से रोका जा रहा है। इसकी वजह अलगाववादियों का विरोध है, जिसे शह पाकिस्तान से और समर्थन नेशनल कांफ्रेंस तथा कांग्रेस से मिल रहा है।
दरअसल कश्मीर में कांटे बोये गये और घटनाओं के वस्तुनिष्ठ लेखन का कार्य नहीं होने दिया गया। महाराजा हरीसिंह को गलत पेश किया गया कि वे विलय के हिमायती नहीं थे। वास्तविकता यह है कि शेख अब्दुल्ला और पं.नेहरू को हरी सिंह से चिढ़ थी। क्योंकि हरीसिंह ने शेख अब्दुल्ला की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये थे। हरीसिंह की राष्ट्रीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। उन्होंने 1930 में लंदन में गोल मेज कांफ्रेंस में कहा था कि वह पहले भारतीय हैं और बाद में महाराज हैं। तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंट वेटन और पं.नेहरू ही कश्मीर के भारत में विलय के हिमायती नहीं थे। तत्कालीन घटनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन यह भी सही है कि जो विलय पत्र हस्तातरित हुआ है
और वह सभी रियायतों जैसा है। उस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यदि जे.के. का विलय अधूरा है, तो अविभाजित भारत की सभी रियासतों का विलय अधूरा है। आज के संदर्भ में उमर अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है, वे यह बताना चाहते हैं कि रिश्ते अस्थायी हैं। उनका भारत के साथ संवैधानिक रिश्ता विवादित है। गोया खानदानी पैंतरा भयादोहन का जारी है। कांग्रेस मसूमियत का लबाया ओढे है। राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला की जुगलबंदी ने राष्ट्र की अखण्डता को हल्के पन से लेकर साबित कर दिया है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और उसकी कीमत चुकाने के लिए उत्सर्ग के मायने उनके लिए कुछ भी नहीं है। सत्ता की अपरिहार्यता उनके लिए अहम बात है।
कहा जाता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। पं. नेहरू ने लम्हे मे जो खता की उसकी सजा साठ वर्षों से देशवासी भुगत रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुराणों में सरस्वती प्रदेश कहा गया। नब्बे प्रतिशत वित्तीय पोषण देश के करदाताओं के पैसे से हो रहा है। उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की अवाम के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी है कि वे न तो भारतीय संघ की कठपुतली हैं और भीख का कटोरा लिए दिल्ली जाते हैं। जब पाकिस्तान की शह पर जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यकों को खदेड़ा जा रहा है, विशेष सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को समाप्त करने, स्वायत्तता 1953 पूर्व की देन, फौज में कटौती करने के लिए षड्यंत्र रचे जा रहे है। पाकिस्तान झंडा फहराया जाना आम रिवाज बन रहा है। किसी भी राष्ट्र भक्त, जमात ने साहस तो किया कि जम्मू कश्मीर के अवाम को बताये कि पूरा देश उनके साथ है। पाक परस्त अलगाववादी समूचे जम्मू कश्मीर को हांक नहीं सकते हैं। इस राष्ट्रीय एकता यात्रा से उमर अब्दुल्ला को खौफजदा होने की आवश्यकता नहीं रही है। लेकिन उमर अब्दुल्ला तो अलगाववादियों के प्रवक्ता की तरह राष्ट्रवादियों के साथ अलगाववादियों की तरह बर्ताव कर रहे हैं। जिसे इतिहास माफ नहीं करेगा। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की असलियत से पूरा देश वाकिफ हो रहा है. इन्हें राष्ट्रीय अखण्डता, देश की सुरक्षा सर्वोपरि नहीं है। ये निरे राजनीति में रसूख पालने और खुदगर्जी की फसल काटने के तलफगार है। राजनीति में वंश परंपरा के गुणदोष नहीं आने दिये जाए, इसलिए ही दुनिया ने लोकतंत्र का वरण किया है। राजशाही को समाप्त किया है, इसे एक विंडवना ही कहा जाएगा कि महाराजा हरीसिंह ने जिन घटनाओं की पूर्व कल्पना कर अपनी आशंका व्यक्त की थी, ये चित्र पट की तरह घटित हुई है। हरीसिंह का जो विरोध तब शेख अब्दुल्ला कर रहे थे आज भी राष्ट्रवादी ही जम्मू कश्मीर के शासक दल नेशनल कांफ्रेंस के निशाने पर हैं। कांग्रेस के राडार पर राष्ट्रीय अखण्डता से अधिक सियासत रही है, जो आज भी है।

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