प्रत्येक देश एवं समाज की एक तासीर होती है जो उसके इतिहास एवं भूगोल से बनती चली जाती है। इसे संस्कृति या सांस्कृतिक विरासत कहा जा सकता है। तासीर में स्वभाव, गुणधर्म, जीवन दर्शन, जीवन शैली, जीवन लक्ष्य, जीवनमूल्य आदि की अभिव्यक्ति होती है। अलग-अलग तासीर होने के कारण विश्व में हर एक समाज की भूमिका भी अलग-अलग होती है। एतदर्थ ही समाज संचालन की दिशा प्रत्येक समाज अपने-अपने हिसाब से निश्चित करता है। भारत जब तक अपनी तासीर से चलता रहा तब तक दुनिया का सिरमौर बना रहा।
अपने विशेष इतिहास एवं भूगोल के कारण भारत की अनेक विशेषताएं भी हैं। भारत का गुणधर्म उसी के अनुसार बनता चला गया। हम जानते हैं कि पिछले 2000 साल में भारत पर हमलों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। बीच में कुछ ठहराव आया, परंतु पिछले 1000 सालों में इसकी निरंतरता बनी रही। पिछले 300 सालों में उपनिवेशवाद की सूरत में यूरोपीय शक्तियों का दबदबा कायम रहा, जिस दौरान भारत को लूटने-खसोटने के नए-नए तरीके खोजे गए। अंग्रेजी शासन-काल में विदेशी सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का काफी प्रभाव पड़ा। इसके पहले समाज पर विदेशी प्रभाव बहुत कम हुआ था। अंग्रेजों के आने से पूर्व समाज ने विजातीय तत्वों, ढांचों और तौर-तरीकों से बचाव की एक प्रणाली विकसित कर ली थी।
पर पिछले 200 सालों में हम इन विजातीय तत्वों के हानिकारक प्रभावों को सोचने-समझने में कम पड़े। समय-समय पर भारत के कई सपूतों ने अपनी आवाज उठाई। चाहे स्वामी विवेकानन्द हों, महर्षि अरविन्द, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी या डा. हेडगेवार रहे हों, सबने अपनी-अपनी कोशिशें की, लेकिन फिर भी विजातीय सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का देश की भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन सहित समाज संचालन के प्रत्येक अंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देश की 30 प्रतिशत आबादी और 35 प्रतिशत भूगोल का हिस्सा इसकी चपेट में विशेष रूप से आ गया।
1947 में हम अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुए; परंतु उनकी सोच से मुक्त नहीं हो सके। हम विजातीय सोच, ढांचे और तौर तरीकों को ही आगे बढ़ाते चले गए, चाहे वो भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन के रूप में हो या समाज रचना के लिए राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति के रूप में हो। इसका जीवनलक्ष्य, जीवनमूल्य, जीवन पद्धति आदि पर भी असर पड़ता गया। इसलिए उपभोगवाद एवं भौतिकवाद, जो भारत की तासीर के खिलाफ है, को भी बढ़ावा मिलता गया। समृद्धि से कोई समस्या नहीं है लेकिन अंधी समृद्धि भारत की तासीर के अनुकूल नहीं है। अधिक उत्पादन, उचित वितरण और संयमित उपभोग, यही भारत की तासीर के अनुरूप है। समृद्धि के साथ सामर्थ्य आवश्यक है। समृद्धि इसलिए कि हम दूसरों में बांट सकें और सामर्थ्य इसलिए कि दूसरे आंखें न दिखा सकें।
हम अपने ही समान दूसरे समाज को मान लेने की भूल कर बैठते हैं। अपनी नीयत के प्रकाश में हम उनकी नीयत को जांचने-समझने की कोशिश करते हैं। बाजारवाद कितना क्रूर, विध्वंसक, मानव विरोधी, समाज विरोधी, प्रकृति विरोधी है, इसको हम अपने ही नजरिए से देखते रहने के कारण समझने में विफल हो जाते हैं। इसलिए हम विदेशियों की चाल का शिकार अनजाने में बनते जाते हैं। इसे ही सद्गुण विकृति का नया रूप कहा जाएगा।
ऐसी स्थिति में वैश्वीकरण के जो लक्षण दिखाई देते हैं, वे हैं– विकेंद्रीयकरण, एकरूपीकरण और बाजारीकरण। बाजार आधारित उन्मुक्त उपभोग ही इसका एकमात्र लक्ष्य है। इसके खिलाफ भारत को अपनी तासीर के अनुरूप आगे बढ़कर दुनिया में अपना फर्ज निभाना होगा। इसके लिए भारत को विकेंद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण की ओर अग्रसर होना होगा। इसके लिए आवश्क है समाज में सामर्थ्य और समृद्धि का प्रवाह होना, जिसका पहला लक्षण होगा- ‘सबको भोजन, सबको काम’ और ‘न रहे कोई भूखा, न रहे कोई बेकार’।
इतिहास में जरा झांककर देखें तो हमें पता चलता है कि हम इस लक्ष्य को पहले भी हासिल कर चुके हैं। आज हमें फिर से इसे हासिल करना है। अतीत में जब हम विविधीकरण पर विश्वास कर रहे थे, स्थानिक तौर पर रचनाएं बनाते चल रहे थे और बाजारमुक्त होकर संयमित उपभोग के रास्ते चलकर अपनी सांस्कृतिक विरासत एवं आर्थिक समृद्धि दोनों पर ध्यान दे रहे थे, तब भी हमने विकेंद्रीकरण एवं स्थानिकीकरण को ही अपना आधार बनाया था। हमारे भूगोल की तासीर भी यही कहती है कि हर जगह की अपनी विशेष बात है, जैसे ‘पांच कोस पर बदले पानी, दस कोस पर बदले बानी’।
1947 के बाद भारत के इस वैशिष्टय को समाहित करते हुए यदि आवश्यक समाजनीति, अर्थनीति और राजनीति की रचना की गई होती, तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। पर ऐसा नहीं हुआ। राजनीति और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीयकरण की प्रक्रिया जारी रही। समाज में उन्मुक्त उपभोगवाद की लहर दौड़ाने की कोशिश आज पहले से कहीं अधिक जोर-शोर से की जा रही है। इन विकृतियों का सामना करने के लिए हमें फिर से स्थानिकीकरण को आधार बनाकर ‘हमारा जिला-हमारी दुनिया’ का मूलमंत्र लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसा करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की इच्छा सहज स्वभाविक रूप से सामने आएगी। इस इच्छा में विकेंद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण का स्वाभाविक समावेश होगा।
आज से 100 साल पहले भारतीय गांव लगभग पूरी तरह स्वावलंबी थे। आज यदि गांवों को पूरी तरह से स्वावलंबी नहीं बनाया जा सकता, तो कम से कम जितना हो सके, उतना उन्हें स्वावलंबी बनाया जाए। जिला अपनी 80-85 प्रतिशत जरूरतों को स्वयं पूरा कर लें, इसका विशेष रूप से प्रयास होना चाहिए। अपनी व्यवस्था चलाने के लिए प्रान्त और केंद्र पर जिले की निर्भरता कम होती चली जाए, यही समाज को सबल और सफल बनाने का स्वस्थ तरीका रहेगा। इसके लिए जो प्रतिकूल है उसका शमन करना या समझने का प्रयास करना और जो अनुकूल है उसे पुष्ट करना और आगे बढ़ाना, सही तरीका रहेगा।
आज हमारा देश किसी कारपोरेट सेक्टर, पब्लिक सेक्टर या सरकारों के कारण नहीं चल रहा है। देश के अभी भी बचे, बने और टिके रहने में सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी का बड़ा योगदान है। आर्थिक और राजनीतिक पूंजी का तो कई बार प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आवश्यक यह है कि जो विधायक तत्व और पहलू हैं, उन्हें पुष्ट किया जाए। परिवार के बंधन को और मजबूत किया जाए, सामाजिक पूंजी का भरपूर उपयोग हो। यूरोप के नजरिए से भारत को देखना बंद करें। भारत को अपने नजरिए से देखते हुए हम अपने इतिहास का आकलन करें और समस्याओं का समाधान अपने तरीके से करें, यही समय की मांग है।
ऐसी स्थिति में अपने ही जिले की समविचारी ताकतों की खोज करना प्राथमिकता बनती है। जिले की बुद्धि, श्रम एवं साधन का उपयोग करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की स्थिति हम कैसे पा लें, इसकी चिंता करनी होगी। ध्यान रहे ‘समाज आगे सत्ता पीछे तब ही होगा स्वस्थ विकास, सत्ता आगे समाज पीछे तब तो होगा सत्यानाश’। इसी भावना के अनुरूप जिले की सज्जन शक्ति को इकट्ठा करें। राजसत्ता और उसके सारे तंत्र का जितना सहयोग बन पड़े, लें, और सहयोग न मिलने की स्थिति में उन पर दवाब बनाने की स्थिति में हम आ जाएं, ऐसा प्रयास होना चाहिए।
वर्तमान व्यवस्थाओं में हमें तात्कालिक और दीर्घकालिक; दोनों प्रकार के बदलावों के लिए संघर्ष करना होगा। इसलिए सबसे पहले अपने-अपने जिलों का अंदाज, आकलन तो कर ही लें, जिले की जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, जिले में विकास की मद में आने वाली राशि का हिसाब, जिले के राजस्व और आय का ब्यौरा, जिले का गेजेटियर, जिले की देशज ज्ञान परंपरा, जिले का अनोखापन क्या है, इन सब बातों की जानकारी एकत्रित करें। यह करने के लिए अपने जिले की सज्जनशक्ति कहें या स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोग कहें, सबको एक जुट कर लें, क्योंकि यह जिले की थाती और ताकत आज भी हैं और कल भी रहेंगे।
जब अपने जिले में जिला विकास संगम कराने की बात आएगी तो अपने जिले में समान विचार से, समान अधिष्ठान से काम करने वाले जो लोग हैं, जो संगठन है पहले उनसे सपंर्क करने की जरूरत है। उसके पश्चात नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोगों को खोजने एवं चिन्हित करने की जरफरत है।
स्वदेशी एवं विकेंद्रीकरण पर काम काम करने वाले और केवल भौतिक होकर ही नहीं, अभौतिक और आध्यात्मिक होकर भी काम करने वाले कई लोग हैं। जैसे गांधी विचार के लोग, संघ विचार के लोग, गायत्री परिवार के लोग, मध्यस्थ दर्शन विचार के लोग, आजादी बचाओ आंदोलन के लोग, नगर या जिला स्तर पर स्व-स्फूर्त बने संगठन जैसे-हिन्द रक्षक संगठन, हिन्द रक्षा दल, आदि-आदि।
सबसे पहले इन सम विचारी संगठनों के लोगों के साथ बैठकर उनसे जिला विकास संगम आदि के बारे में चर्चा करना, उनके साथ बैठकर वहां के साधनों एवं आंकड़ों का संकलन करना तथा नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोगों की सूची बनाना आवश्यक है। इसमें किसी एक स्थान को संपर्क के नाते चिन्हित कर लेना या तय कर लेना उपयोगी रहेगा, ताकि सूचनाओं का संकलन एक जगह हो सके और वहां से उनका आदान-प्रदान भी हो सके। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसलिए जिला विकास संगम की शुरुआत करने के पहले जिले में सम-विचारी लोग एवं संगठन कौन कौन से हैं, कहां हैं, उनकी क्षमताएं क्या हैं, यह सभी उन लोगों के लिए जानना आवश्यक है, जो अपने जिलों में जिला विकास संगम करवाना चाहते हैं।
स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोग जैसे– कम पूंजी और कम लागत में उत्पादन के ढांचे को चलाने वाले लोग, गोरक्षा, गोपालन, गोसेवा, गो-आधारित कृषि, जैविक कृषि में लगे हुए लोग, प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि परंपरागत चिकित्सा में लगे हुए लोग, जिले में जल, जंगल, जमीन, जानवर के क्षेत्र में बिना विदेशी सहायता के काम कर रहे लोग, मातृ शक्ति के क्षेत्र में लगे हुए लोग, स्थानिक कारीगरी, देशज ज्ञान में लगे हुए लोग, कला, लोकनृत्य आदि सांस्कृतिक गतिविधियों में लगे लोग, जिले की शिक्षा संस्थानों के संचालक, व्यापार मंडल के संचालक, वहां के नौजवानों के संगठन, समाज सुधार के क्षेत्र में लगे संगठन, पर्यावरण सुधार एवं रक्षा में लगे लोग, ऐसे संत-महात्मा, जिनकी जिले में प्रतिष्ठा हो, इन सबको मिला कर जिले की शक्ति, श्रम, बुद्धि और संसाधन के आधार पर ‘सबको भोजन-सबको काम’ का लक्ष्य लेकर जिले के लोग इकट्ठा हो जाएं तो इसे ही कहा जाएगा ‘जिला विकास संगम’।
इस आधार पर एकत्रित लोगों के साथ बैठ कर जिले की समस्याओं और विकास पर चर्चा हो जाए तो हम राजसत्ता से हिसाब मांगने की स्थिति में आ जाएंगे। इसलिए जिले के स्तर पर ही बौद्धिक, रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक, तीनों तरह की गतिविधियां नियोजित की जानी चाहिए। यही ढांचा नीचे गांव तक जाए और ऊपर की तरफ भी पहुंचे। विकेंद्रीकरण, जो भारत की तासीर के अनुरूप है, उसी को संपूर्ण गतिविधियों का आधार बनाना होगा। देश की एकता, देश की अखंडता बनी रहे, देश एकजुट होकर दुनिया द्वारा दी जाने वाली चुनौतियों और संकटों का सामना करने की स्थिति में आ सके, इसका रास्ता जिला विकास संगम से होकर निकलेगा।
अपने विशेष इतिहास एवं भूगोल के कारण भारत की अनेक विशेषताएं भी हैं। भारत का गुणधर्म उसी के अनुसार बनता चला गया। हम जानते हैं कि पिछले 2000 साल में भारत पर हमलों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। बीच में कुछ ठहराव आया, परंतु पिछले 1000 सालों में इसकी निरंतरता बनी रही। पिछले 300 सालों में उपनिवेशवाद की सूरत में यूरोपीय शक्तियों का दबदबा कायम रहा, जिस दौरान भारत को लूटने-खसोटने के नए-नए तरीके खोजे गए। अंग्रेजी शासन-काल में विदेशी सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का काफी प्रभाव पड़ा। इसके पहले समाज पर विदेशी प्रभाव बहुत कम हुआ था। अंग्रेजों के आने से पूर्व समाज ने विजातीय तत्वों, ढांचों और तौर-तरीकों से बचाव की एक प्रणाली विकसित कर ली थी।
पर पिछले 200 सालों में हम इन विजातीय तत्वों के हानिकारक प्रभावों को सोचने-समझने में कम पड़े। समय-समय पर भारत के कई सपूतों ने अपनी आवाज उठाई। चाहे स्वामी विवेकानन्द हों, महर्षि अरविन्द, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी या डा. हेडगेवार रहे हों, सबने अपनी-अपनी कोशिशें की, लेकिन फिर भी विजातीय सोच, ढांचों और तौर-तरीकों का देश की भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन सहित समाज संचालन के प्रत्येक अंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देश की 30 प्रतिशत आबादी और 35 प्रतिशत भूगोल का हिस्सा इसकी चपेट में विशेष रूप से आ गया।
1947 में हम अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुए; परंतु उनकी सोच से मुक्त नहीं हो सके। हम विजातीय सोच, ढांचे और तौर तरीकों को ही आगे बढ़ाते चले गए, चाहे वो भाषा, भूषा, भोजन, भेषज, भजन और भवन के रूप में हो या समाज रचना के लिए राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति के रूप में हो। इसका जीवनलक्ष्य, जीवनमूल्य, जीवन पद्धति आदि पर भी असर पड़ता गया। इसलिए उपभोगवाद एवं भौतिकवाद, जो भारत की तासीर के खिलाफ है, को भी बढ़ावा मिलता गया। समृद्धि से कोई समस्या नहीं है लेकिन अंधी समृद्धि भारत की तासीर के अनुकूल नहीं है। अधिक उत्पादन, उचित वितरण और संयमित उपभोग, यही भारत की तासीर के अनुरूप है। समृद्धि के साथ सामर्थ्य आवश्यक है। समृद्धि इसलिए कि हम दूसरों में बांट सकें और सामर्थ्य इसलिए कि दूसरे आंखें न दिखा सकें।
हम अपने ही समान दूसरे समाज को मान लेने की भूल कर बैठते हैं। अपनी नीयत के प्रकाश में हम उनकी नीयत को जांचने-समझने की कोशिश करते हैं। बाजारवाद कितना क्रूर, विध्वंसक, मानव विरोधी, समाज विरोधी, प्रकृति विरोधी है, इसको हम अपने ही नजरिए से देखते रहने के कारण समझने में विफल हो जाते हैं। इसलिए हम विदेशियों की चाल का शिकार अनजाने में बनते जाते हैं। इसे ही सद्गुण विकृति का नया रूप कहा जाएगा।
ऐसी स्थिति में वैश्वीकरण के जो लक्षण दिखाई देते हैं, वे हैं– विकेंद्रीयकरण, एकरूपीकरण और बाजारीकरण। बाजार आधारित उन्मुक्त उपभोग ही इसका एकमात्र लक्ष्य है। इसके खिलाफ भारत को अपनी तासीर के अनुरूप आगे बढ़कर दुनिया में अपना फर्ज निभाना होगा। इसके लिए भारत को विकेंद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण की ओर अग्रसर होना होगा। इसके लिए आवश्क है समाज में सामर्थ्य और समृद्धि का प्रवाह होना, जिसका पहला लक्षण होगा- ‘सबको भोजन, सबको काम’ और ‘न रहे कोई भूखा, न रहे कोई बेकार’।
इतिहास में जरा झांककर देखें तो हमें पता चलता है कि हम इस लक्ष्य को पहले भी हासिल कर चुके हैं। आज हमें फिर से इसे हासिल करना है। अतीत में जब हम विविधीकरण पर विश्वास कर रहे थे, स्थानिक तौर पर रचनाएं बनाते चल रहे थे और बाजारमुक्त होकर संयमित उपभोग के रास्ते चलकर अपनी सांस्कृतिक विरासत एवं आर्थिक समृद्धि दोनों पर ध्यान दे रहे थे, तब भी हमने विकेंद्रीकरण एवं स्थानिकीकरण को ही अपना आधार बनाया था। हमारे भूगोल की तासीर भी यही कहती है कि हर जगह की अपनी विशेष बात है, जैसे ‘पांच कोस पर बदले पानी, दस कोस पर बदले बानी’।
1947 के बाद भारत के इस वैशिष्टय को समाहित करते हुए यदि आवश्यक समाजनीति, अर्थनीति और राजनीति की रचना की गई होती, तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। पर ऐसा नहीं हुआ। राजनीति और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीयकरण की प्रक्रिया जारी रही। समाज में उन्मुक्त उपभोगवाद की लहर दौड़ाने की कोशिश आज पहले से कहीं अधिक जोर-शोर से की जा रही है। इन विकृतियों का सामना करने के लिए हमें फिर से स्थानिकीकरण को आधार बनाकर ‘हमारा जिला-हमारी दुनिया’ का मूलमंत्र लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसा करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की इच्छा सहज स्वभाविक रूप से सामने आएगी। इस इच्छा में विकेंद्रीकरण, स्थानिकीकरण, बाजारमुक्ति और विविधीकरण का स्वाभाविक समावेश होगा।
आज से 100 साल पहले भारतीय गांव लगभग पूरी तरह स्वावलंबी थे। आज यदि गांवों को पूरी तरह से स्वावलंबी नहीं बनाया जा सकता, तो कम से कम जितना हो सके, उतना उन्हें स्वावलंबी बनाया जाए। जिला अपनी 80-85 प्रतिशत जरूरतों को स्वयं पूरा कर लें, इसका विशेष रूप से प्रयास होना चाहिए। अपनी व्यवस्था चलाने के लिए प्रान्त और केंद्र पर जिले की निर्भरता कम होती चली जाए, यही समाज को सबल और सफल बनाने का स्वस्थ तरीका रहेगा। इसके लिए जो प्रतिकूल है उसका शमन करना या समझने का प्रयास करना और जो अनुकूल है उसे पुष्ट करना और आगे बढ़ाना, सही तरीका रहेगा।
आज हमारा देश किसी कारपोरेट सेक्टर, पब्लिक सेक्टर या सरकारों के कारण नहीं चल रहा है। देश के अभी भी बचे, बने और टिके रहने में सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी का बड़ा योगदान है। आर्थिक और राजनीतिक पूंजी का तो कई बार प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आवश्यक यह है कि जो विधायक तत्व और पहलू हैं, उन्हें पुष्ट किया जाए। परिवार के बंधन को और मजबूत किया जाए, सामाजिक पूंजी का भरपूर उपयोग हो। यूरोप के नजरिए से भारत को देखना बंद करें। भारत को अपने नजरिए से देखते हुए हम अपने इतिहास का आकलन करें और समस्याओं का समाधान अपने तरीके से करें, यही समय की मांग है।
ऐसी स्थिति में अपने ही जिले की समविचारी ताकतों की खोज करना प्राथमिकता बनती है। जिले की बुद्धि, श्रम एवं साधन का उपयोग करते हुए ‘सबको भोजन-सबको काम’ की स्थिति हम कैसे पा लें, इसकी चिंता करनी होगी। ध्यान रहे ‘समाज आगे सत्ता पीछे तब ही होगा स्वस्थ विकास, सत्ता आगे समाज पीछे तब तो होगा सत्यानाश’। इसी भावना के अनुरूप जिले की सज्जन शक्ति को इकट्ठा करें। राजसत्ता और उसके सारे तंत्र का जितना सहयोग बन पड़े, लें, और सहयोग न मिलने की स्थिति में उन पर दवाब बनाने की स्थिति में हम आ जाएं, ऐसा प्रयास होना चाहिए।
वर्तमान व्यवस्थाओं में हमें तात्कालिक और दीर्घकालिक; दोनों प्रकार के बदलावों के लिए संघर्ष करना होगा। इसलिए सबसे पहले अपने-अपने जिलों का अंदाज, आकलन तो कर ही लें, जिले की जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, जिले में विकास की मद में आने वाली राशि का हिसाब, जिले के राजस्व और आय का ब्यौरा, जिले का गेजेटियर, जिले की देशज ज्ञान परंपरा, जिले का अनोखापन क्या है, इन सब बातों की जानकारी एकत्रित करें। यह करने के लिए अपने जिले की सज्जनशक्ति कहें या स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोग कहें, सबको एक जुट कर लें, क्योंकि यह जिले की थाती और ताकत आज भी हैं और कल भी रहेंगे।
जब अपने जिले में जिला विकास संगम कराने की बात आएगी तो अपने जिले में समान विचार से, समान अधिष्ठान से काम करने वाले जो लोग हैं, जो संगठन है पहले उनसे सपंर्क करने की जरूरत है। उसके पश्चात नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोगों को खोजने एवं चिन्हित करने की जरफरत है।
स्वदेशी एवं विकेंद्रीकरण पर काम काम करने वाले और केवल भौतिक होकर ही नहीं, अभौतिक और आध्यात्मिक होकर भी काम करने वाले कई लोग हैं। जैसे गांधी विचार के लोग, संघ विचार के लोग, गायत्री परिवार के लोग, मध्यस्थ दर्शन विचार के लोग, आजादी बचाओ आंदोलन के लोग, नगर या जिला स्तर पर स्व-स्फूर्त बने संगठन जैसे-हिन्द रक्षक संगठन, हिन्द रक्षा दल, आदि-आदि।
सबसे पहले इन सम विचारी संगठनों के लोगों के साथ बैठकर उनसे जिला विकास संगम आदि के बारे में चर्चा करना, उनके साथ बैठकर वहां के साधनों एवं आंकड़ों का संकलन करना तथा नैसर्गिक स्वदेशी प्रक्षेत्र में काम करने वाले लोगों की सूची बनाना आवश्यक है। इसमें किसी एक स्थान को संपर्क के नाते चिन्हित कर लेना या तय कर लेना उपयोगी रहेगा, ताकि सूचनाओं का संकलन एक जगह हो सके और वहां से उनका आदान-प्रदान भी हो सके। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसलिए जिला विकास संगम की शुरुआत करने के पहले जिले में सम-विचारी लोग एवं संगठन कौन कौन से हैं, कहां हैं, उनकी क्षमताएं क्या हैं, यह सभी उन लोगों के लिए जानना आवश्यक है, जो अपने जिलों में जिला विकास संगम करवाना चाहते हैं।
स्वदेशी प्रक्षेत्र के लोग जैसे– कम पूंजी और कम लागत में उत्पादन के ढांचे को चलाने वाले लोग, गोरक्षा, गोपालन, गोसेवा, गो-आधारित कृषि, जैविक कृषि में लगे हुए लोग, प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि परंपरागत चिकित्सा में लगे हुए लोग, जिले में जल, जंगल, जमीन, जानवर के क्षेत्र में बिना विदेशी सहायता के काम कर रहे लोग, मातृ शक्ति के क्षेत्र में लगे हुए लोग, स्थानिक कारीगरी, देशज ज्ञान में लगे हुए लोग, कला, लोकनृत्य आदि सांस्कृतिक गतिविधियों में लगे लोग, जिले की शिक्षा संस्थानों के संचालक, व्यापार मंडल के संचालक, वहां के नौजवानों के संगठन, समाज सुधार के क्षेत्र में लगे संगठन, पर्यावरण सुधार एवं रक्षा में लगे लोग, ऐसे संत-महात्मा, जिनकी जिले में प्रतिष्ठा हो, इन सबको मिला कर जिले की शक्ति, श्रम, बुद्धि और संसाधन के आधार पर ‘सबको भोजन-सबको काम’ का लक्ष्य लेकर जिले के लोग इकट्ठा हो जाएं तो इसे ही कहा जाएगा ‘जिला विकास संगम’।
इस आधार पर एकत्रित लोगों के साथ बैठ कर जिले की समस्याओं और विकास पर चर्चा हो जाए तो हम राजसत्ता से हिसाब मांगने की स्थिति में आ जाएंगे। इसलिए जिले के स्तर पर ही बौद्धिक, रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक, तीनों तरह की गतिविधियां नियोजित की जानी चाहिए। यही ढांचा नीचे गांव तक जाए और ऊपर की तरफ भी पहुंचे। विकेंद्रीकरण, जो भारत की तासीर के अनुरूप है, उसी को संपूर्ण गतिविधियों का आधार बनाना होगा। देश की एकता, देश की अखंडता बनी रहे, देश एकजुट होकर दुनिया द्वारा दी जाने वाली चुनौतियों और संकटों का सामना करने की स्थिति में आ सके, इसका रास्ता जिला विकास संगम से होकर निकलेगा।
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